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उत्तर- प्रकृतिबन्ध : प्रकार, स्वरूप और कारण - १ २५१ रखकर मतिज्ञान-प्राप्ति के जैन पारिभाषिक शब्दों से समझने का प्रयत्न करेंगे तो इनकी संगति अपने आप बैठ जाएगी । '
द्रव्य पर्याय से अपृथक् होने से वस्तु का ज्ञान पर्याय से होता है
किसी भी वस्तु को जानने का अर्थ है - वस्तु को उसके पर्याय से जानन्न। पर्याय वस्तु के क्रमभावी धर्म होते हैं, वें वस्तु (द्रव्य) से अलग (पृथक् ) नहीं होते। सामने पड़ी हुई वस्तु को जानने के लिए उस वस्तु के रंग, रूप, आकार आदि पर्यायों को जानने से उस वस्तु का आंशिक बोध हो जाता है। पर्याय को छोड़कर द्रव्य नहीं रह सकता अथवा पर्याय के बिना द्रव्य नहीं रहता। इसलिए पर्याय को लेकर द्रव्य का ज्ञान होता है। निष्कर्ष यह है कि सामने पड़ी हुई वस्तु के आकार-प्रकार, रंग-रूप और स्पर्श आदि का ज्ञान पर्यायों द्वारा ही होता है।
अतः सबसे पहले हम अवग्रह पर विचार करें। अवग्रह दो प्रकार का होता हैव्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह । अर्थावग्रह पदार्थ के अव्यक्त ज्ञान को कहते हैं। इसमें पदार्थ के वर्ण, गन्ध आदि का सामान्य ज्ञान होता है। इसकी स्थिति एक समय की होती है। आँखें मूंद कर खोलें इतने में असंख्य समय हो जाते हैं। परन्तु ज्ञान की शुरुआत के एक समय में ऐसा अवग्रह होता है। लेकिन अर्थावग्रह से पहले होने वाला अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान व्यंजनावग्रह कहलाता है। यह नेत्र और मन को छोड़ कर शेष चार इन्द्रियों से होता है। इसकी जघन्य स्थिति आवलिका के असंख्यात भाग की और उत्कृष्ट २ से ९ श्वासोच्छ्वास तक है। ३ सारांश यह है कि जब इन्द्रियों का पदार्थ के साथ, प्रथम सम्बन्ध होता है तब 'यह कुछ है,' ऐसा अस्पष्ट ज्ञान होता है, उसे अर्थावग्रह कहते हैं। एक तरह से व्यंजनावग्रह के पुष्ट अंश को अर्थावग्रह कहा जा सकता है, क्योंकि व्यंजनावग्रह अर्थावग्रह से पहले होता है, और अत्यन्त अस्पष्ट होता है, उसे ही व्यंजनावग्रह कहते हैं, जो पदार्थ की सत्ता को ग्रहण करने पर ही होता है। अर्थात् पहले सत्ता की प्रतीति होती है, तत्पश्चात् व्यंजनावग्रह होता है। अतः अर्थावग्रह का फलितार्थ हुआ - इन्द्रियों का वस्तु के साथ सम्बन्ध होने से होने वाला अव्यक्त ग्रहण - परिच्छेदन।
वस्तु का सामान्य बोध होने में दो क्रम : पटुक्रम और मन्दक्रम बात यह है कि वस्तु के सामान्य बोध होने में दो मुख्य क्रम होते हैं- एक पटुक्रम और दूसरा मन्दक्रम। मन्दक्रम में वस्तु का संयोग इन्द्रिय के साथ अवश्यम्भावी है।
9. जैनदृष्टिए कर्म से पृ. ७७
२. वही, पृ. ७७
३. (क) ज्ञान का अमृत से
(ख) जैनदृष्टिए कर्म से, पृ. ७७, ७८
वंजणोवगाहकालो आवलियाऽसंखभाग तुल्लो उ। थोवा उक्कोसा पुण आणपाणू पुहुत्तं ति ॥
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- नन्दीसूत्र टीका
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