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________________ २५२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) अर्थावग्रह पटुक्रम है; क्योंकि उसमें इन्द्रियों और मन के साथ पदार्थ-संयोग की जरूरत नहीं रहती। अर्थावग्रह मन और चक्षुरिन्द्रिय से होता है। ये दोनों पदार्थों से अलग दूर रहकर ही उनको ग्रहण करते हैं। ये दोनों अप्राप्यकारी हैं। अर्थात्-पदार्थों के साथ संयोग किये बिना ही उनका ज्ञान कर लेते हैं। जैसे-पेटी का विचार करने के लिए मन का पेटी के साथ संयोग करने की जरूरत नहीं रहती। इसी प्रकार हजारों मील दूर आकाश में अवस्थित चन्द्रमा या तारों को जानने के लिए आँखों को उनके पास ले जाने या उनसे संयोग कराने की जरूरत नहीं रहती। यह पटुक्रम है। दूसरा मन्दक्रम है, वह है-व्यञ्जनावग्रह। व्यंजन का अर्थ ही है-संयोग, या सम्बन्ध (कान्टेक्ट-Contact)। इसतिए व्यंजनावग्रह में इन्द्रियों का पदार्थ के साथ संयोगसम्बन्ध या स्पर्श होना जरूरी है। स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र, ये चारों इन्द्रियाँ पदार्थों के साथ संयोग करके ही उसका ज्ञान प्राप्त कर सकती हैं, ये प्राप्यकारी कहलाती हैं। अतः व्यंजनावग्रह प्राप्यकारी चार इन्द्रियों से होने के कारण उसके ४ भेद होते हैं-(१) स्पर्शनेन्द्रिय व्यंजनावग्रह, (२) रसनेन्द्रिय व्यंजनावग्रह, (३) घ्राणेन्द्रिय व्यंजनावग्रह और (४) श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनावग्रह। पहले अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा को लेकर प्रत्येक के छह-छह प्रकार होने से ६४४-२४ भेद मतिज्ञान के बताये गए थे। व्यंजनावग्रह के पूर्वोक्त ४ भेद मिल कर २८ भेद मतिज्ञान के हुए।१ . इन्हें स्पष्ट रूप से यों समझिए-अर्थावग्रह के ६ भेद-(१) स्पर्शनेन्द्रिय अर्थावग्रह, (२) रसनेन्द्रिय अर्थावग्रह, (३) घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह, (४) चक्षुरिन्द्रिय अर्थावग्रह, (५) श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह और (६) मन-अर्थावग्रह। ये ६ भेद तथा इसी प्रकार पांचों इन्द्रियों के नामों तथा मन के साथ क्रमशः ईहा, अवाय और धारणा को जोड़ने से इनके भी ६+६+६=१८ भेद, पहले के ६ भेद के साथ मिलाने से २४ भेद हुए और व्यंजनावग्रह के ४ मिलकर २८ भेद मतिज्ञान के हुए। . पूर्वोक्त २८ प्रकार का मतिज्ञान बारह-बारह प्रकार से . ज्ञान का कार्य पदार्थों को जानना है। क्षयोपशम की तरतमता के कारण कभी वह एक प्रकार के पदार्थों को तो कभी अनेक प्रकार के पदार्थों को जानता है। कभी पदार्थ का शीघ्र ज्ञान हो जाता है, तो कभी विलम्ब से होता है इत्यादि। अतः पांचों इन्द्रियों और मन, इन ६ साधनों (करणों) से होने वाले मतिज्ञान के अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के रूप से जो २४ भेद कहे हैं, वे क्षयोपशम तथा विषय की विचित्रता के कारण बारह-बारह प्रकार के होते हैं। उनके नाम इस प्रकार है-(१) बहु, (२) बहुविध, (३) क्षिप्र, (४) अनिश्रित, (५) असंदिग्ध और (६) ध्रुव तथा १. (क) जैनदृष्टिए कर्म से पृ.-७७, ७९ - (ख) जैन दर्शन : स्वरूप और विश्लेषण-आचार्य देवेन्द्र मुनि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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