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२३४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७)
अवस्थित परिणाम परिवर्तमान मध्यम परिणाम कहलाते हैं, उनमें यथायोग्य परिणामों से आयुबन्ध होता है। अर्थात् - छहों लेश्या के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से १८ अंश हैं। · ... उनमें से आयुकर्म के बंध योग्य आठ अंश जानने चाहिए । '
आयुष्कर्म के दो प्रकार : अपवर्त्य, अनपवर्त्य
यों तो प्रत्येक जीव अपने जीवनकाल में प्रतिक्षण आयुकर्म को भोग रहा है, और प्रतिक्षण आयुकर्म के परमाणु भोग के पश्चात् पृथक् होते रहते हैं। जिस समय वर्तमान जीवन के पूर्वबद्ध आयुकर्म के समस्त परमाणु क्षीण होकर आत्मा से पृथक् हो जाते हैं, उस समय प्राणी को वर्तमान शरीर छोड़ना पड़ता है। वर्तमान शरीर को छोड़ने से पूर्व ही भावी नवीन शरीर के आयुकर्म का बन्ध हो जाता है; यह उपर्युक्त तथ्य से स्पष्ट प्रतीत होता है। किन्तु यदि आयुष्यकर्म की कालावधि इस प्रकार से नियत है, तो अकालमरण या आकस्मिक क्यों होता है ? इसी के समाधान के लिये जैनकर्म-वैज्ञानिकों ने दो प्रकार का आयुष्य माना है - (१) अपवर्तनीय (अपवर्त्य ) और (२) अनपवर्तनीय (अनपवर्त्य ) । अनपवर्तनीय आयु वह है, जो आयु किसी भी कारण से कम नहीं होती, बीच में टूटती नहीं; अपनी पूरी स्थिति भोग कर ही समाप्त (क्षय) होती है, जितने काल के लिये बाँधी गई है, उतने काल तक भोगी जाए, वह अनपवर्तनीय आयु है। क्रमिक भोग में आयुकर्म का भोग स्वाभाविक रूप से धीरे-धीरे होता रहता है। २
अपवर्तनीय और अवपर्तनीय आयुष्य वाले कौन-कौन ?
उपपातरूप से जन्म लेने वाले (देव और नारक ) चरम शरीरी (तद्भवमोक्षगामी), उत्तम पुरुष (तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि) और असंख्यात वर्षजीवी (देवकुरु उत्तरकुरु) (तीस अकर्मभूमियों, छप्पन अन्तद्वीपों और कर्मभूमि ) आदि क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य ( यौगलिक मानव ) और तिर्यञ्च (जो कि उक्त क्षेत्रों के अलावा ढाई द्वीप के बाहर द्वीप समुद्रों में भी पाये जाते हैं) अनपवर्तनीय आयुष्य वाले होते हैं। इनके अतिरिक्त शेष मनुष्य और तिर्यञ्च अपवर्तनीय आयुष्य वाले हैं।
अपवर्त्य और अनपवर्त्य आयुष्य : लक्षण और स्पष्टीकरण
अपवर्तनीय आयु वह है, जो आयु किसी शस्त्र आदि का निमित्त पाकर बाँधे गए समय से पहले ही भोग ली जाती है। तात्पर्य यह है कि जल में डूबने, शस्त्रघात. विषपान आदि बाह्य कारणों से सौ पचास आदि वर्षों के लिए बाँधी गई आयु को
१. धवला १२ / ४, २, ७, ३२ / २७, गोम्मटसार (कर्म) मू. ५१८
२. (क) कर्मप्रकृति ( आचार्य विजयजयन्तसेनजी म. ) से,
(ख) बाह्यस्योपघात-निमित्तस्य विष-शस्त्रादेः सतिसन्निधाने हस्वं भवतीत्यपवर्त्यम् ।
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- सर्वार्थसिद्धि २/५३
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