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________________ मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २३५ अन्तर्मुहूर्त में ही अथवा स्थिति पूर्ण होने से पहले ही शीघ्रता से एक साथ ही भोग ली जाती है, उसे अपवर्तनीय आयु (आयु का आकस्मिक भोग) कहते हैं। इसे व्यावहारिक भाषा में अकाल मृत्यु अथवा आकस्मिक मरण भी कहते हैं। अकाल में आयुभेद (मृत्यु) के ७ कारण स्थानांगसूत्र में ऐसे आयुभेद (बाँधी हुई आयु पूर्ण किये बिना बीच में ही मृत्यु हो जाना) के ७ कारण बताये गये हैं- ( 9 ) अध्यवसाय (हर्ष, शोक, राग- मोह एवं भय आदि के अतिरेक से प्रबल मानसिक आघात । (२) निमित्त - विष, शस्त्र, दण्ड आदि के प्रयोग के निमित्त से, (३) आहार ( आहार की अत्यधिकता अथवा सर्वथा अभाव), (४) वेदना (शूल, पीड़ा, तनाव, चिन्ता तथा व्याधिजनित असह्य वेदना ), (५) पराघात ( गड्ढे में गिरना आदि बाह्य आघात ) (६) स्पर्श ( सर्पदंश आदि से या ऐसी वस्तु, जिसके छूने से ही सारे शरीर में विष फैल जाए और (७) श्वास-निरोध (हार्टफेल, हृदयगति अवरुद्ध हो जाना, अथवा श्वास की गति बंद हो जाना)। ये सातों ही कारण अपवर्तनीय आयु के हैं। ' आयु सोपक्रम और निरुपक्रम दो प्रकार की है। सोपक्रम आयु वाले व्यक्ति को अकाल-मृत्यु योग्य विष, शस्त्र आदि का संयोग अवश्य होता है। अपवर्तनीय आयु सोपक्रम होती है। इसमें विष, शस्त्र आदि का निमित्त अवश्य प्राप्त होता है, और उस निमित्त के कारण जीव नियत समय से पूर्व ही मर जाता है । परन्तु अनपवर्तनीय आयु सोपक्रम और निरुपक्रम दोनों प्रकार की होती है। अर्थात् उस आयु में अकाल मृत्यु का सन्निघान (उपक्रम) होता भी है और नहीं भीं होता। किन्तु उन निमित्तों (उपक्रमों - विषशस्त्रादि) का संयोग होने पर भी अनपवर्तनीय आयु नियत काल (सीमा) के पहले पूर्ण नहीं होती। अपवर्तनीय आयु वाले प्राणियों को शस्त्रादि कोई न कोई निमित्त मिल ही जाते हैं, जिससे वे अकाल में ही मर जाते हैं, किन्तु अनपवर्तनीय आयु वाले को कैसा भी प्रबल निमित्त क्यों न मिले मगर अकाल में वे नहीं मरते । २ अपवर्तनीय-अनपवर्तनीय आयुबन्ध परिणाम के वातावरण पर निर्भर यद्यपि अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय आयु का बन्ध परिणाम के तारतम्य पर अवलम्बित है। इन दोनों प्रकार की आयु का बन्ध स्वाभाविक नहीं पड़ता । भावी जन्म की आयु वर्तमान जन्म में बाँधी जाती है। आयुबन्ध के समय यदि परिणाम मन्द हों तो आयु का बन्ध शिथिल पड़ता है। इस कारण निमित्त मिलने पर बन्धकाल की १. ( क ) औपपातिक - चरमदेहोत्तमपुरुषाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवर्त्यायुषः । -- तत्त्वार्थसूत्र २ / ५२ (ख) स्थानांगसूत्र स्थान ७ (ग) कर्मप्रकृति, पृ. ४६ २. (क) प्रथम कर्मग्रन्थ विवेचन ( मरुधरकेशरीजी) से, पृ. ९५ (ख) कर्म - प्रकृति ( आ. जयंतसेनजी म. ) से, पृ. ४५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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