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________________ मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २३३ द्वारा अपमान करके अमनोज्ञ अप्रीतिकर या ऐसा ही खराब अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चार प्रकार का आहार देने (बहराने) से।' शुभ दीर्घायु वाले कर्म भी जीव तीन कारणों से बाँधते हैं। यथा-प्राणियों की हिंसा न करने से, झूठ न बोलने से तथा तथारूप श्रमणों और माहनों को वन्दना नमस्कार करके, आदर-सम्मान-बहुमान करके यावत् पर्युपासना व वैयावृत्य करके तथा मनोज्ञ एवं प्रीतिकारक अशन, पान, खादिम, स्वादिमरूप चतुर्विध आहार देने (बहराने से)।२ जीव आयुष्यकर्म कब बाँधता है ? एक धारणा प्रश्न होता है कि जीव आयुष्यकर्म कब बाँधता है ? संसार में चार प्रकार के जीव हैं-देव, नारक, मनुष्य और तिर्यञ्च । देवों और नारकों का अगले भव का आयुष्य छह महीने की आयु शेष रहने पर ही बँध जाता है। पञ्चेन्द्रिय संज्ञी मनुष्य और तिर्यञ्च की आयु निम्नोक्त रूप से बँधती है-वर्तमान भव की निश्चित आयु को तीन भागों में बाँटने पर, उनमें से दो भाग बीत जाने पर शेष रहे एक भाग में अगले भव (जन्म) की आयु बँध सकती है। यदि उस समय आयु न बँधे, या वैसे परिणाम न हों तो शेष रहे एक भाग को भी तीन हिस्सों में बाँट दीजिए। उनमें से भी दो भाग (हिस्से) बीत जाने पर शेष बचे एक हिस्से में आयु बँधती है। यों करते-करते अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में तो आयु अवश्य बँधेगी ही। ___ कल्पना करो, एक व्यक्ति का वर्तमान भव का आयुष्य ९० वर्ष का है, तो ६० वर्ष व्यतीत हो जाने पर नये-आगामी भव (जन्म) का आयुष्य बँध सकता है। यदि उस समय न बँधे तो शेष तीस वर्ष के दो भाग यानी बीस साल बीत जाने पर शेष १/३ भाग यानी १० वर्ष में आयुष्य बँध सकता है। अर्थात्-पूर्ण आयु ९० वर्ष की हो तो ८0 साल बीत जाने पर आयुष्य बँधता है। उस वक्त भी न बँधे तो दस वर्ष के भी दो भाग बीत जाने पर बँधता है। यों करते-करते अन्तिम अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर आयुष्य अवश्यमेव बँधेगा।३ मध्यम परिणामों में ही आयुष्य का बन्ध होता है अति जघन्य परिणाम आयुबन्ध के अयोग्य होता है। अत्यन्त महान परिणाम भी आयुबन्ध के अयोग्य है, क्योंकि ऐसा ही स्वभाव है; किन्तु इन दोनों के मध्य में १. (क) भगवतीसूत्र श. ५, उ. ६ (ख) भगवतीसूत्र श. ५, उ. ६ (ग) भगवतीसूत्र श. ५, उ. ६ . (घ) भगवतीसूत्र श. ५, उ. ६ २. भगवतीसूत्र श. ५, उ. ६ से ३. (क) रे कर्म तेरी गति न्यारी से, पृ. ७७ (ख) धवला १०/४, २४/३९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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