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________________ मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २२९ (२) तीव्र मान करने से, (३) तीव्र माया करने से, (४) तीव्र लोभ करने से, (५) तीव्र दर्शनमोहनीय से और (६) तीव्र चारित्र - मोहनीय से। १ महामोहनीय कर्मबन्ध के ३० कारण समवायांगसूत्र में महामोहनीय (तीव्रतम मोहनीय) कर्म बन्ध के ३० कारण बताये गए हैं- (१) जो किसी त्रस प्राणी को पानी में डुबा कर माराता है, (२) जो किसी त्रस जीव को मस्तक पर गीला चमड़ा बाँधकर तीव्रतर अशुभ अध्यवसाय पूर्वक मारता है, (३) जो किसी त्रस जीव को मुँह बाँध कर मारता है, (४) जो किसी त्रस प्राणी को अग्नि का धुँआ देकर मारता है; (५) जो किसी त्रस जीव का मस्तक काट कर मारता है, (६) जो किसी त्रस प्राणी को छल से मार कर हँसता है, (७) जो मायाचार करके या दम्भ दिखावा करके असत्य बोलकर अपना अनाचार छिपाता है, (८) जो अपना अनाचार छिपाकर दूसरे पर कलंक लगाता है, (९) जो कलह बढ़ाने के लिये जान-बूझ कर मिश्र भाषा बोलता है, (90) जो पति-पत्नी में मनमुटाव पैदा करता है, उन्हें मार्मिक वचन बोलकर झेंपा देता है, (११) स्त्री में अत्यासक्त होते हुए भी जो स्वयं को कुंआरा कहता है, (१२) जो कामुक व्यक्ति ब्रह्मचारी या बालब्रह्मचारी न होते हुए भी स्वयं को ब्रह्मचारी या बाल- ब्रह्मचारी कहता है, (१३) जो चापलूसी करके अपने स्वामी (मालिक) को ठगता है, धोखा देता है, (१४) जिनकी कृपा से समृद्ध बना हो, उनसे ईर्ष्या करके उनके ही कार्यों में विघ्न डालता है, (१५) जो अपने उपकारी की हत्या करता है, (१६) जो प्रसिद्ध पुरुष की हत्या करता है, (१७) जो प्रमुख पुरुष की हत्या करता है, (१८) जो संयमी को पथभ्रष्ट करता है, (१९) जो महान् पुरुषों की निन्दा करता है, (२०) जो न्यायमार्ग की निन्दा करता है, झुठलाता है, (२१) जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु की निन्दा करता है, (२२) जो आचार्य, उपाध्याय एवं गुरु का अविनय करता है, (२३) जो अबहुश्रुत होते हुए भी स्वयं को बहुश्रुत कहता है, (२४) जो तपस्वी न होते हुए भी स्वयं को तपस्वी कहता है, (२५) जो अस्वस्थ आचार्य आदि की सेवा नहीं करता, (२६) जो आचार्य आदि कुशास्त्र की प्रेरणा करते हैं, (२७) जो आचार्यादि अपनी प्रशंसा और प्रसिद्धि के लिए हिंसाकारी अनिष्ट मंत्र-तंत्र आदि का प्रयोग करते हैं, (२८) ज़ो इहलौकिक पारलौकिक भोगोपभोग की प्राप्ति की तीव्र अभिलाषा (निदान) करता है, (२९) जो देवी-देवों की निन्दा करता या करवाता है, और (३०) जो असर्वज्ञ (छद्मस्थ) होते हुए भी स्वयं को सर्वज्ञ कहता है। ये और इस प्रकार के दुष्कृत्य क्रूर अध्यवसाय या तीव्रकषायपूर्वक करने से महामोहनीय कर्म का बन्ध होता है । २ (क) जैन, बौद्ध, गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. ३७० (ख) भगवतीसूत्र श. ८, उ. ९, सू. ३५१ (ग) नवपदार्थ ज्ञानसार, पृ. २३७ २. (क) समवायांग, ३०वाँ समवाय (ख) जैन, बौद्ध, गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ. ३७१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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