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२३० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) आयुष्यकर्म : लक्षण, स्वभाव और बन्धकारण
जिस कर्म के उदय से जीव देव, नारक, तिर्यञ्च और मनुष्य रूप से जीता है और उसके क्षय होने पर उन-उन रूपों (पर्यायों) का त्याग करता है, यानी मर जाता है, उस शरीर को छोड़ जाता है, उसे आयुकर्म कहते हैं। जीवों के जीवन धारण करने की अवधि का नियामक आयुष्यकर्म है। इस कर्म के अस्तित्व से प्राणी जीवित रहता है और क्षय होने पर मृत्यु का आलिंगन करता है।
देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक, इन चार गतियों में किस जीव को कितने काल तक अपना जीवन बिताना है, उस शरीर से बद्ध रहना है, इसका निर्णय आयुकर्म करता है। जिस-जिस गति में जाना होता है, उस-उस गति में कितने काल तक रहना, प्रत्येक भव में कितना समय बिताना, अर्थात्-आत्मा को किस शरीर में कितनी समयावधि तक रहना, इसका निश्चय पहले से हो जाता है; यही कर्म इसका निर्णय करता है। आयुकर्म का स्वभाव __ आयुष्यकर्म का स्वभाव कारागृह या हडि (खोड़ा-बेड़ी) के समान बताया गया है। जैसे अपराधी अपराध के अनुसार अमुक काल तक कारागृह में रखा जाता है, अपराधी उस अवधि से पहले छूटना चाहता है, किन्तु अवधि पूरी हुए बिना छूट नहीं सकता, उसे निश्चित समय तक वहाँ रहना पड़ता है। वैसे ही आयुकर्म के कारण जीव को निश्चित अवधि तक नरकादि गतियों में रहना पड़ता है, जब वह बाँधी हुई
आयु (कर्म-स्थिति) भोग लेता है, तभी उस-उस शरीर से छुटकारा मिलता है। • आयुष्यकर्म का कार्य जीव को सुख या दुःख देना नहीं है, परन्तु नियत अवधि तक किसी एक भव या शरीर में बनाये रहने का है।२
. सर्वार्थसिद्धि में भवधारण करना आयुकर्म की प्रकृति बताया गया है, अर्थातजिस कर्म के द्वारा जीव नरकादि भवों (जन्मों) में शरीर धारण हेतु जाता है, वही आयुकर्म है। जन्म का कारण भी गतिबन्ध नहीं, आयुबन्ध है। जिस गति की आयु बांधी गई है, जीव निश्चय से उसी गति में जन्म लेता है।
कर्मग्रन्थ में आयुष्कर्म का स्वभाव हड़ि (खोड़ा-बेड़ी-चेन-Chain) के समान बताया गया है। प्राणी को खोड़ा-बेड़ी में डालने पर वह वहाँ से अन्यत्र नहीं जा
-राजवार्तिक ८/१०/२
१. (क) जैनदृष्टिए कर्म से, पृष्ठ ६७
(ख) धर्म और दर्शन से, पृ. ७७ (ग) यद्भावाभावयोर्जीवितमरणं तदायुः ।
(घ) प्रज्ञापना २३/१ २. (क) धर्म और दर्शन से ७८
(ख) ठाणांग २/४/१०५ टीका
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