SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २२७ ज्ञानावरण से अलग क्यों कहा गया ? ज्ञानावरण के अन्तर्गत ही गतार्थ कर लेना चाहिए; ऐसा कहना यथार्थ नहीं है, क्योंकि पदार्थ का यथार्थ बोध करके भी 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार सद्भूत अर्थ का अश्रद्धान (दर्शन) मोह है, परन्तु ज्ञानावरण कर्म ज्ञान का भी ग्रहण करता है, अज्ञान का भी। वह अन्यथा ग्रहण नहीं करता, यही दोनों में अन्तर है। जैसे-अंकुर रूप कार्य के भेद से कारणभूत बीजों में भिन्नता होती है, इसी तरह अज्ञान और चारित्रभूत इन दोनों में अन्तर समझना चाहिए।' मोहनीय कर्म का दोहरा कार्य : ज्ञानादि शक्तियों को विकृत और कुण्ठित करने का फिर मोहनीय कर्म के दो रूप हैं-श्रद्धा (दर्शन) रूप और चारित्र (प्रवृत्ति) रूप। श्रद्धा अंदर में रहने वाली किसी धारणा (मान्यता) विशेष का नाम है; जिससे व्यक्ति की प्रवृत्ति (आचरण चारित्र) में अन्तर पड़ा करता है; जबकि ज्ञानावरण, दर्शनावरण या अन्तराय कर्म, इन तीनों कर्मों के प्रभाव से जीव की तीनों शक्तियाँ (ज्ञान, दर्शन और वीर्य) कम हो जाती हैं, परन्तु विकृत नहीं होतीं। मोहनीय कर्म आत्मा की इन शक्तियों को रागादि भावों के कारण विकृत कर देता है; क्योंकि रागद्वेषादि भाव ही बंधन में डालने वाले तथा स्वतः विकाररूप हैं। मोहनीय कर्म ज्ञानादि को विकृत करके उनके अन्तरंग यथार्थ तत्वों (भावों) के दर्शन नहीं होने देता है, इन्हीं रागादि भावों को मूर्छा, मोह, अविद्या या अज्ञान कहा जाता है। रागादि की उत्पत्ति का मूल कारण श्रद्धा, धारणा अथवा दृष्टि है; क्योंकि उसी के कारण जीव पांचों इन्द्रियों और मन के विषयों (बाह्य भौतिक विषयों) को सुख-दुःख का कारण मान लेता है। जैसे‘भोगों में सुख है'; ऐसी श्रद्धा वाले मनुष्य का धर्म-सम्मुख होना अत्यन्त दुर्लभ है। ज्ञान, दर्शन और वीर्य की कमी से जीव को कोई विशेष बाधा नहीं होती, या हानि नहीं होती, क्योंकि जीव में इतना ज्ञान, दर्शन, वीर्य बना रहता है, जितने से वह अपना लौकिक-लोकोत्तर प्रयोजन सिद्ध कर सकता है।२ ____ मोहनीय कर्म का स्वभाव : मद्यपान से तुलना .. मोहनीय कर्म का स्वभाव (प्रकृति) मद्य-(पान) के समान बताया गया है। जैसेमदिरा पान किया हुआ मनुष्य जहाँ तहाँ गिर जाता है, पड़ता है, इधर-उधर लोटता है, समझ में न आये, ऐसे-ऐसे कार्य करता है, अपने पर कंट्रोल (नियंत्रण) नहीं कर पाता है। वह अपने हिताहित का भान भूल जाता है। ठीक वैसे ही मोहनीय कर्म के उदय से जीव अपने हिताहित को नहीं समझ पाता। उसमें स्व-पर को परखने की विवेकबुद्धि भी नष्ट हो जाती है।३ 'स्थानांगसूत्र' की टीका में कहा गया है कि "जैसे . १. राजवार्तिक ८/४-५/५६८ २. कर्म सिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्रवर्णी) से, पृ, ६०-६१ ३. मोहनीयस्य का प्रकृतिः ? मद्यपानवद्धयोपादेय-विचार-विकलता । -द्रव्यसंग्रह टीका ३३/९२/११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy