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________________ २२६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) के कारण विविध शक्तियों का उपयोग नहीं कर पाता; जबकि मोहनीय कर्म के कारण जानते-देखते हुए भी तथा अपनी शक्ति और सामर्थ्य का उपयोग कर सकने योग्य होते हुए भी परभावों और विभावों में इतना फँस जाता है कि वह उनका यथार्थ आचरण नहीं कर पाता क्योंकि मोहनीय कर्म दृष्टि में भी विकार उत्पन्न करता है और आचरण में भी। यह आत्मा के शुद्ध स्वभाव-वास्तविक स्वरूप-वीतराग-स्वरूप को विकृत कर देता है, जिससे आत्मा अपने शुद्ध ज्ञान भाव-(ज्ञाता-द्रष्टाभाव) को भूलकर राग-द्वेष में फँस जाता है, इसी कर्म के कारण आत्मा को अपने स्वरूपरमण में, स्व-पर-विवेक में, आत्मा और शरीर के भेद-विज्ञान में बाधा समुपस्थित होती है।' सर्वकर्मों में मोहकर्म की प्रधानता इसीलिए मोहनीय कर्म को आत्मा का ‘अरि' (शत्रु) कहा है, क्योंकि वह समस्त दुःखों की प्राप्ति में निमित्त कारण है। एक तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि केवल मोहनीय को ही अरि मान लेने पर, शेष समस्त कर्मों का व्यापार निष्फल हो जाएगा; किन्तु ऐसा नहीं है; क्योंकि बाकी के समस्त कर्म मोहनीय के ही अधीन हैं। मोहनीय कर्म के बिना शेष कर्म अपने-अपने कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करते हुए नहीं पाये जाते हैं, जिससे कि वे स्वतंत्र समझे जाएँ। इसलिए आत्मा का सच्चा अरि मोहनीय ही है। वही केन्द्रीय कर्म है। शेष कर्म उसके अधीन हैं। यद्यपि मोहनीय कर्म के सर्वथा नष्ट होने पर भी कितने ही काल तक शेष अघाती कर्मों की सत्ता रहती है, इसलिए उनको मोहकर्म के अधीन मानना उचित नहीं है; इसका समाधान ग्रह है कि ऐसा समझना ठीक नहीं, क्योंकि मोहरूप अरि के नष्ट हो जाने पर जन्म-मरण-परम्परारूप संसार के उत्पादन की सामर्थ्य शेष कर्मों में नहीं रहने से उन कर्मों की सत्ता असत्ता (सत्ता न रहने) के समान हो जाती है। यही कारण है कि मोहनीय कर्म को जन्म-मरणादि दुःख-रूप संसार का मूल कहा है। मोहनीय कर्म को आगमों में सेनापति कहा है। जिस प्रकार सेनापति के चल बसने पर सेना में भगदड़ मच जाती है, वैसे ही मोहकर्म के नष्ट हो जाने पर शेष सारे घातिकर्म टूट जाते हैं. शेष रहे चार अघातिकर्म भी आयुष्यकर्म की समाप्ति होते ही समाप्त हो जाते हैं।२ ज्ञानावरण कर्म से मोहनीय कर्म में अन्तर प्रश्न होता है-मोह के होने पर हिताहित का विवेक (ज्ञान) नहीं रहता और ज्ञानावरण कर्म भी ज्ञान पर आवरण कर देता है; तब फिर मोहनीय कर्म को १. (क) कर्मवाद से, पृ. ६० (ख) धर्म और दर्शन (आचार्य देवेन्द्रमुनि) से, प्र. ७२ (ग) जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द्र जैन) से, पृ. २०४ (घ) अष्टकर्मनो राजवी हो, मोह प्रथम क्षय कीन । २. (क) धवला १, १, १/४३ (ख) कर्मवाद, पृ. ६० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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