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मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २२३ फलस्वरूप वह सातावेदनीय कर्म बांध कर देवलोक में गया। (५) पांचवाँ कारणशुभयोग है। प्रतिलेखनादि में शुभयोगों से सातावेदनीय का बन्ध होता है। जैसेवल्कलचीरी को प्रतिलेखन शुभयोगपूर्वक करने से जातिस्मरण ज्ञान हुआ, सातावेदनीय का बन्ध हुआ और उसके फलस्वरूप केवलज्ञान भी प्राप्त हुआ। (६) छठा कारण है-क्रोधादि कषायों पर विजय पाना-क्रोध आदि आन्तरिक शत्रु हैं। उन पर विजय पाने से अवन्ति सुकमाल की तरह जीव सातावेदनीय का बन्ध करता है। (७) सातवाँ कारण-दान है। दान से मनुष्य की वृत्तियाँ कोमल, कृपालु, नम्र, निरभिमानी होती हैं। शालिभद्र के जीव संगम ने मुनि को निर्दोष आहारदान देकर सातावेदनीय कर्म बाँधा, जिसके फलस्वरूप उसे शालिभद्र के रूप में सुख सुधिवधाएँ मिली तथा उन्हीं सांसारिक सुखों में लुब्ध न होकर वे मोक्ष सुख की आराधना में तल्लीन हो गए। (८) आठवाँ कारण है-धर्म में दृढ़ता-जिसकी धर्म पर दृढ़ आस्था, निष्ठा एवं तल्लीनता होती है, वह सातावेदनीय कर्म बाँधता है। राजगृह के सुदर्शन श्रमणोपासक की धर्म पर दृढ़ आस्था थी। इस कारण अर्जुनमाली के घोर उपसर्ग के रहते भी सुदर्शन धर्म-श्रद्धा से जरा भी विचलित नहीं हुआ। फलतः उसने असातावेदनीय के प्रसंग पर सातावेदनीय बाँधा। (९) नौवां कारण है-अकामनिर्जरा । अकामनिर्जरा का अर्थ है-अनिच्छा से भी समभावपूर्वक कष्ट सहन करना। ऐसा करने से भी सातावेदनीय कर्म बंधता है। धवल बैल ने चाबुक की मार सहन की। जिसके फलस्वरूप मरकर शूलपाणि यक्ष बना। देवयोनि पाकर कई प्रकार के सुख प्राप्त किये। (१०) दसवाँ कारण बताया गया है-माता-पिता के प्रति विनय (नमस्कार आदि) करना। संतान के प्रति माता-पिता के असीम उपकार हैं, उनके प्रति विनय करने से, उनकी सेवा-शुश्रूषा करने से, उनकी धर्म में अबाधक आज्ञाओं का पालन करने से सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है। ___सातावेदनीय के हेतुओं से ठीक विपरीत असातावेदनीय कर्मबन्ध के कारण हैं। जैसे-गुरुजनों का तिरस्कार, द्वेष, क्रोधादि कषाय, व्रत का खण्डन, अशुभ योग, कषायों की परवशता, कृपणता, माता-पिता का अविनय आदि।'
वस्तुतः वेदनीय कर्म के दो कार्य हैं-विषय-भोगों का संयोग-वियोग कराना, तथा उस संयोग-वियोग के निमित्त से दुःख-सुख की प्रतीति या वेदन कराना। बहुधा वेदन वाला कार्य मोह के साथ रहने पर होता है।२ __ वेदनीय कर्म प्रभाव से जीव को कभी सुख तथा कभी दुःख की अनुभूति
दूसरी बात यह है कि वेदनीय कर्म के प्रभाव से ही जीव को कभी सुख की, कभी दुःख की और कभी दोनों की उपलब्धि होती है। अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति का
१. रे कर्म तेरी गति न्यारी से, पृ. ११२ से ११६ तक २. कर्म सिद्धान्त (वर्णीजी) से, पृ. ५८
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