________________
२२२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) करने से, जीवों पर अनुकम्पा करने से, सत्त्वों पर अनुकम्पा करने से, बहुत से प्राण, भूत, जीव और सत्वों को दुःख न देने से, उन्हें शोक न कराने से, न झुराने से, न रुलाने से, न मारने-पीटने से, और न परिताप देने से जीव सातावेदनीय कर्मबन्ध करते हैं।"२ सातावेदनीय के प्रभाव से आठ प्रकार की सुखद संवेदना . सातावेदनीय के प्रभाव (उदय) से प्राणी निम्नोक्त सुखद-संवेदना प्राप्त करता है(१) कर्णप्रिय, मनोज्ञ, सुखद स्वर श्रवण करने की उपलब्धि, (२) मनोज्ञ सुखद सुन्दर रूप दर्शन की प्राप्ति, (३) सुखद मनोज्ञ सुगन्ध की प्राप्ति, (४) सुस्वादु भोजनादि की उपलब्धि, (५) मनोज्ञ कोमल सुखद स्पर्श एवं मृदु स्पर्श वाले पदार्थों की उपलब्धि, (६) वांछित सुखों की प्राप्ति, (७) शुभवचन, प्रशंसादि श्रवण के अवसर की प्राप्ति, (८) शारीरिक सुख-सुविधाओं की प्राप्तिा३ कर्मग्रन्थवर्णित कारणों का उदाहरणसहित प्रस्तुतीकरण
कर्मग्रन्थ में सातावेदनीय कर्मबन्ध के जिन कारणों का उल्लेख किया है, उनमें सर्वप्रथम कारण है-(१) गुरुभक्ति-धर्मगुरुओं, अथवा गुरुजनों आदि की भक्ति। गुरुभक्ति से मतलब है-गुरुजनों के प्रति सम्मान-बहुमान आदि। जैसे-गणधर गौतम स्वामी ने अपने परम गुरु भगवान महावीर देव के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखी थी। (२) दूसरा कारण क्षमा है। कोई व्यक्ति आक्रोश करे, पत्थर, लाठी आदि से मारे, गाली दे, अपमान करे, तो भी क्षमा रखने से, समभावपूर्वक सहन करने से सातावेदनीय कर्मबन्ध होता है। भगवान महावीर के कान में कील ठोकी गई, चण्डकौशिक सर्प ने पैरों में डसा, चिलातीपुत्र एवं दृढ़प्रहारी जब समता-साधना के पथ पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ हो गए तो नगरजनों ने कायोत्सर्गस्थ मुनियों को बहुत ही यातनाएँ दी, झांझरिया मुनिवर का गला राजा ने कटवा दिया, तब भी वे क्षमाशील रहे। (३) तीसरा कारण दया है। मेघकुमार मुनि के जीव ने हाथी के भव में २० पहर तक पैर को ऊँचा रखकर एक खरगोश की दया की। सातावेदनीय कर्म बांधा, जिसके फलस्वरूप आगामी भव में श्रेणिकनृप का पुत्र मेघकुमार हुआ। (४) चौथा कारण व्रतपालन है। महाबल राजा ने महाव्रतों का सुचारु रूप से पालन किया, जिसके
१. प्राण-तीन विकलेन्द्रिय जीव, भूत-वनस्पतिकायिक जीव, जीव-पंचेन्द्रिय जीव, सत्त्व-वनस्पति . को छोड़कर शेष स्थावर जीवा २. पाणाणुकंपाए, भूयाणुकंपाए, जीवाणुकंपाए, सत्ताणुकंपाए, बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं
अदुक्खणयाए, असोयणाए, अजूरणयाए, अतिप्पणयाए अपिट्टणयाए, अपरियावणयाए, एवं
खलु गोयमा ! जीवा णं सायावेयणिज्जा कम्मा कज्जति । -भगवतीसूत्र ७/३, सू. २८६ ३. (क) नवपदार्थ ज्ञानसार, पृ. २३७
(ख) जैन बौद्ध गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन से, पृ. २६९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org