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________________ २२४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) आरोह-अवरोह, आशा-निराशा, इष्ट-अनिष्ट संयोग-वियोग आदि का क्रम चलता रहता है; उसे भी वेदनीय कर्म का प्रभाव समझना चाहिए। वेदनीय-कर्मोदय से चारों गतियों के जीवन सुख-दुःख मिश्रित निष्कर्ष यह है कि संसारी जीव वेदनीय कर्म के उदय से इन्द्रियविषयजन्य सुख-दुःख का अनुभव करते रहते हैं। वे न तो एकान्तरूप से सुख ही सुख का वेदन करते हैं और न ही एकान्ततः दुःख ही दुःख का । उनका जीवन सुख-दुःख से मिश्रित होता है। फिर भी देवगति और मनुष्यगति में प्रायः सातावेदनीय का और तिर्यञ्चगति और नरकगति में प्रायः असातावेदनीय का उदय रहता है। प्रायः शब्द से यह सूचित किया गया है कि देवों और मनुष्यों के सातावेदनीय के अलावा असातावेदनीय का और तिर्यञ्चों और नारकों के असातावेदनीय के अलावा सातावेदनीय का उदय भी सम्भव है; फिर चाहे वह अल्पांश में ही हो।' वेदनीय कर्मबन्ध : एक ज्वलन्त प्रश्न और समाधान वेदनीय कर्मबन्ध के सम्बन्ध में एक ज्वलन्त प्रश्न यह है कि यदि दुःख आदि के पूर्वोक्त निमित्त अपने या दूसरे में उत्पन्न करने से असातावेदनीय कर्म बन्ध के हेतु होते हैं तो फिर उपवास, लोच, रस-परित्याग, व्रत-नियम पालन आदि संयम नियम भी दुःखद होने से क्या असातावेदनीय के बन्ध हेतु होंगे ? - इसका समाधान यह है कि ये और ऐसे ही दःख के निमित्त जब क्रोधादि आवेश से उत्पन्न होते हैं या किये जाते हैं, तब वे असातावेदनीय बन्ध के हेतु होते हैं, किन्तु सामान्य रूप से दुःखद होने से तथा स्वेच्छा से समभावपूर्वक धर्म पालन के लिए सकाम-निर्जरा के हेतु से कष्ट सहने से या तथाविध संयम की. प्रेरणा देने से वे असातावेदनीय कर्म बन्ध के हेतु नहीं होते। सच्चा त्यागी आतापना, उपवास आदि| कठोर व्रतों का क्रोध या वैसे ही अन्य दुर्भावों से नहीं, बल्कि सवृत्ति और सद्बुद्धि | से प्रेरित होकर चाहे जितना दुःख उठाता है, कष्ट सहता है, परन्तु वह उसके असातावेदनीय कर्मबन्ध का नहीं, कर्मक्षय का हेतु बनता है। सच्चे त्यागी को चाहे | जैसे दुःखद प्रसंगों पर क्रोध, संताप आदि कषाय की मन्दता होने से असातावेदनीय कर्मबन्ध का हेतु नहीं बनता। बल्कि बहुधा ऐसे त्यागियों को कठोरतम व्रत-नियमों आदि का पालन करने में हार्दिक प्रसन्नता महसूस होती है, क्योंकि ऐसे दुःखद प्रसंगों को वे सुखरूप मानते हैं। मानसिक रुचि भी उन्हें ऐसे दुःखद प्रसंगों में दुःख की' अनुभूति नहीं होने देती। जैसे-कोई दयालु चिकित्सक चीर-फाड़ के द्वारा किसी रोगी को दुःख देने का निमित्त बनने पर भी करुणावृत्ति से प्रेरित होने से असातावेदनीय (क) कर्मप्रकृति (आचार्य जयन्तसेन विजयजी म.) से भावांशग्रहण, पृ. १७-१८ . (ख) ओसन्नं सुरं-मणुए सायमसायं तु तिरिय-णरएसु ॥ -कर्मग्रन्थ भा. १, गा. १३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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