SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २१७ ज्ञान की अनुपलब्धि, (३) दृष्टिशक्ति का अभाव, (४) दृश्यज्ञान की अनुपलब्धि, (५) गन्ध ग्रहण करने की शक्ति का अभाव, (६) गन्ध सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि, (७) स्वाद-ग्रहण करने की शक्ति का अभाव, (८) स्वाद-सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि, (९) स्पर्श-सम्बन्धी क्षमता का अभाव, और (१०) स्पर्श-सम्बन्धी ज्ञान की उपलब्धि का अभाव। कर्मग्रन्थ में प्रतिपादित दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के हेतु कर्मग्रन्थ प्रथम भाग में दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के कारणों को स्पष्ट करते हुए कहा गया है-(१) सम्यकदृष्टि की निन्दा करना, दोषदर्शन करना तथा उसके प्रति अकृतज्ञ होना, (२) मिथ्या मान्यताओं तथा मिथ्यात्व-पोषक तत्वों का प्रतिपादन करना, (३) शुद्ध सम्यग्दृष्टि की उपलब्धि में बाधा डालना, विपरीत मत के चक्कर में डालना, (४) सम्यग्दृष्टि की समुचित विनय एवं बहुमान नहीं करना, (५) सम्यग्दृष्टि पर द्वेष रखना, वैर-विरोध व ईर्ष्या करना, (६) सम्यग्दृष्टि के साथ मिथ्याग्रह पूर्वक वाद-विवाद कस्ना। ये और इस प्रकार के कारण दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के कारण हैं, जिनसे दर्शन-शक्ति कुण्ठित होती है।' _ वेदनीय कर्म का लक्षण और बन्ध के कारण वेदनीय कर्म-जो कर्म (उदय के समय) आत्मा को सुख-दुःख का वेदन कराए, अनुभव कराए, वह वेदनीय कर्म कहलाता है। आत्मा का स्वभाव अव्याबाध सुखमय, आनन्दघन है, परन्तु इस कर्मबन्ध के कारण जिन्हें व्यवहारदृष्टि से काल्पनिक 'सुख-दुःख माना जाता है, उनका अनुभव कराता है। माने हुए पौद्गलिक सुख भोगते समय मीठे लगते हैं, परन्तु परिणाम में ये जीव को रुलाते हैं, खेद पैदा करते हैं, संक्लेश उत्पन्न करते हैं; और ऐसा सुख नहीं मिलता है, इस प्रकार क्षोभ, विरह का दुःख वगैरह प्राप्त होता है। आत्मा अव्याबाध सुख को छोड़ कर इस काल्पनिक स्थूल वैषयिक सुख-दुःख में रचा-पचा रहता है, इसी कर्म के कारण। इस कर्म के प्रभाव से जीवात्मा जिस भौतिक सुख को प्राप्त करता है, उसके प्रति गाढ़ राग और वह न मिले तो हृदय में धधक उठता द्वेष, अत्यधिक स्वार्थवृत्ति आदि सब वेदनीय कर्मबन्ध के फल हैं। सातावेदनीय कर्म के उदय से सुख तो मिलता है, मगर वह कृत्रिम कर्मजन्य सुख होता है, वह क्षणिक होता है। ज्यों ही पूर्वबद्ध आसातावेदनीय कर्म उदय में आता है, त्यों ही दुःख का अनुभव (फलभोग) प्रारम्भ हो जाता है। निष्कर्ष १. (क) तत्त्वार्य सूत्र जैनागम-समन्वय (आ. आत्मारामजी म.) से, पृ. १४७ । (ख) जैनदर्शनमा कर्मवाद (श्री चन्द्रशेखर विजयजी गणिवर) से, पृ. ४१ (ग) नवपदार्थ-ज्ञान-सार से, पृ. २३७ (घ) कर्मग्रन्थ भा. १ गा. ५४ (ङ) तत्त्वार्थ सूत्र ६/११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy