SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) लोग हँसते, तो भी वे समभाव - पूर्वक सहते थे। शुद्ध भाव से अशुद्ध रूप में भी गुरु- प्रदत्त वाक्य को उन्होंने बारह वर्ष तक रटा। वे श्रद्धापूर्वक उद्वेग एवं क्षोभ से रहित होकर रटते रहते। अतः ज्ञानावरण कर्म कटने लगा और बारहवें साल में उन्हें माष-उड़द और तुस- छिलके के पृथकत्व की तरह शरीर और आत्मा का भेद विज्ञान सिद्ध हो गया। फलतः केवलज्ञान प्रगट हो गया। यह था ज्ञानावरणीय कर्म के स्वभाव का प्रत्यक्ष प्रभाव और उससे सर्वथा मुक्त होने का प्रभाव । ' दर्शनावरणीय कर्म का लक्षण और कारण दर्शनावरणीय कर्म- जो आत्मा के दर्शन-गुण, अर्थात् वस्तु के सामान्य बोध को आवृत करता है, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। इस कर्म का जितने परिमाण में क्षयोपशम होता है, उतने ही परिमाण में आत्मा वस्तु का सामान्य बोध कर सकती है, उससे अधिक नहीं। जब आत्मा इस कर्म का पूर्णतया क्षय कर देती है, तब केवलदर्शन की प्राप्ति होती है। जिन पूर्वोक्त ६ कारणों तथा अन्य आगमोक्त कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध होता है उन्हीं ६ कारणों तथा आगमोक्त कारणों से दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध होता है। अन्तर इतना ही है कि जहाँ ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों के प्रति प्रद्वेषादि से ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध होता है, वहाँ दर्शन, दर्शनी और दर्शन के पंचेन्द्रिय आदि साधनों से प्रद्वेष दुरुपयोग आदि से दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध समझना चाहिए। 'कुछ है' ऐसा सामान्य ज्ञान दर्शन है और 'यह वृक्ष या मनुष्य है, ' ऐसा विशेष ज्ञान, ज्ञान है। आत्मा के अनन्तदर्शन नामक गुण को रोकने वाला दर्शनावरणीय कर्म है। एक कर्म विज्ञान - मनीषी ने दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के कारणों का उल्लेख करते हुए कहा- बहरे, गूँगे, अंधे, लूले लंगड़े आदि अंगविकल व्यक्तियों को देखकर उनका तिरस्कार करने, उन्हें धक्का देकर निकालने, उन्हें यथाशक्ति सहायता न करने, उनका उपहास करने, उनके प्रति दयाभाव न रखने तथा मिले हुए नेत्र, कान, नाक, जीभ तथा स्पर्शेन्द्रिय आदि इन्द्रियों का सदुपयोग न करके दुरुपयोग करना भी दर्शनावरणीय कर्म के बन्ध के कारण हैं। इसके फलस्वरूप जो कार्मिक स्कन्ध जीवात्मा के चिपकता है, उसका स्वभाव होता है - जीव को बहरा, अन्धा, गूँगा आदि बना देना; घोर निद्रा, आलस्य आदि दुष्फल प्राप्त कराना । ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के विपाक के प्रकार नव-पदार्थज्ञानसार में ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के विपाक के दस प्रकार बताये हैं- ( 9 ) सुनने की शक्ति का अभाव, (२) सुनने से प्राप्त होने वाले १. रे कर्म तेरी गति न्यारी ! से भावांश ग्रहण, पृ. ६४-६५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy