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________________ नारा मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २१५ पर भी उनके आवृत-अनावृत भागों में एकरूपता होती है। आवृत ज्ञान में भी उतना ज्ञान तो आत्मा में है ही, सिर्फ वह प्रगट नहीं है। ज्ञानावरणीय कर्म के स्वभाव का निर्णय ज्ञानावरणीय कर्म का स्वभाव ज्ञान को आवृत करना है, इसका प्रभाव बहुत बार हम प्रत्यक्ष देखते हैं। कई विद्यार्थी किसी के विद्याभ्यास करने तथा ज्ञानोपार्जन करने में, स्वाध्याय करने में अन्तराय डाला करते हैं, पास में ही कोई सामायिक लेकर बैठा हो या जप अथवा ध्यान कर रहा हो, स्वाध्याय कर रहा हो, वहाँ जोर-जोर से बातें करते हैं, चीखते-चिल्लाते हैं, या ऊँची आवाज में टी. वी. या रेडियो चालू कर देते हैं। इससे ज्ञानावरणीय कर्म का तुरंत बन्ध हो जाता है, जिसका फल उन्हें देर-सबेर से मिलता है। कई विद्यार्थियों की ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के कारण स्मरणशक्ति लुप्त हो जाती है। कई साधकों के पूर्वजन्म में बाँधे हुए ज्ञानावरणीय कर्म उदय में आ जाने पर सहसा स्मृति लुप्त हो जाती है। ज्ञानावरण का प्रभाव :: मुनिश्री समर्थमलजी म. पर इस सम्बन्ध में एक ताजा उदाहरण लीजिए। स्थानकवासी सम्प्रदाय में पं. समर्थमलजी महाराज बहुश्रुत एवं शास्त्रज्ञ माने जाते थे। वे शास्त्रों का अध्ययनअध्यापन प्रायः करते रहते थे। उनकी स्मरणशक्ति एवं प्रतिभाशक्ति भी तीव्र थी। एक बार जब वे गुजरात में विचरण कर रहे थे, उस समय शास्त्र की वाचना देते-देते एकाएक उनकी स्मृति लुप्त हो गयी। मस्तिष्क पर बहुत जोर डालने पर भी उन्हें कुछ भी याद नहीं आ रहा था। यहाँ तक कि वे अपने शिष्यों तथा श्रावकों के नाम तथा अपने विचरण करने के क्षेत्र आदि भी सर्वथा विस्मृत हो गए थे। यह स्थिति पूर्वबद्ध ज्ञानावरणीय कर्म के उदय के कारण हुई थी। बाद में कुछ औषधोपचार के अनन्तर उनकी स्मृति वापस लौटी। परन्तु पहले जैसी तीव्र स्मरणशक्ति नहीं हो पाई। माष-तुष मुनि का उदाहरण : ज्ञानावरणीय का प्रभाव - जैनजगत् में माष तुष मुनि का उदाहरण प्रसिद्ध है। उन्हें गुरुदेव ने एक गाथा याद करने के लिए दी, किन्तु बहुत प्रयत्न करने पर भी वे उसे याद करने में बिलकुल असफल रहे। तब उनके गुरुदेव ने कहा-अच्छा लो, सिर्फ इस वाक्य को कण्ठस्थ कर लो-"मारुष, मातुष।" (अर्थात्-किसी पर रोष-द्वेष मत करो, न किसी पर तोष-राग करो।) परन्तु उनके पूर्वबद्ध ज्ञानावरणीय कर्म के तीव्र उदय के कारण इतना-सा वाक्य भी वे भूल जाते। दूसरे साधु याद दिलाते, फिर भी भूल जाते और याद आता तो 'मास-तुस' रटते थे। गुरु पर अपार श्रद्धा थी, उनकी मंदबुद्धि पर १. जैन-सिद्धान्त (पं. कैलाशचन्द्रजी जैन) से, भावांश ग्रहण, पृ. ९९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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