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________________ २१४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) कई लोग बार-बार पढ़ते हैं, कठोर परिश्रम करते हैं, रटते हैं, पढ़ने बिठाओ तो उन्हें नींद आती है, ज्ञान सीखने में रुचि ही नहीं होती, पन्द्रह दिन रटने पर भी एक गाथा याद नहीं होती, याद किया हुआ भी कई लोग शीघ्र भूल जाते हैं, इसे ज्ञानावरणीय कर्म के बन्ध का फल समझना चाहिए। इन और ऐसे ही कारणों से ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध होता है । १ ज्ञानावरणीय कर्म का स्वभाव : उपमा द्वारा निरूपण ज्ञानावरणीय कर्म को पट्टी की उपमा दी गई है। जैसे- किसी व्यक्ति की आँखों पर अनेक पट वाली कपड़े की पट्टी बाँध दी जाये तो आँखों के रहते भी वह अन्धा-सा रहता है, कुछ भी देख नहीं पाता। इसी प्रकार आत्मा भी अनन्त ज्ञान से सम्पन्न है, फिर भी संसारी जीव के ज्ञानचक्षु पर कर्म की पट्टी बँधी होने से जगत् के पदार्थों को सम्यक् रूप से जान-देख नहीं पाता। आत्मा अनन्तज्ञान से सम्पन्न है, फिर भी जगत् के सभी पदार्थों को तो क्या, पीठ पीछे रखी हुई वस्तु को भी नहीं जान पाता। कारण है - ज्ञानावरणीय कर्म द्वारा ज्ञान को आवृत करने का स्वभाव ! जैसे- आँखों के ऊपर की पट्टी ज्यों-ज्यों खुलती जाती है, त्यों-त्यों दृश्य का ज्ञान उत्तरोत्तर स्पष्ट होता जाता है; वैसे ही ज्यों-ज्यों ज्ञानावरण कर्म हटता जाता है, त्यों-त्यों व्यक्ति का ज्ञान बढ़ता जाता है। एक दिन ज्ञान पर आया हुआ सम्पूर्ण आवरण हट जाता है, तब उस व्यक्ति को सारे विश्व का त्रैकालिक ज्ञान हो जाता है । २ ज्ञानावरणीय कर्म : कुछ शंका-समाधान ज्ञानावरणीय कर्म के बदले 'ज्ञान-विनाशक' नाम न देने का कारण यह है कि आत्मा का मूल गुण ज्ञान है। उसका कभी विनाश नहीं होता । ज्ञान पर कितना ही आवरण आ जाए, फिर भी अक्षर के अनन्तवें भाग जितना ज्ञान नित्य उद्घाटित रहता है। इससे सिद्ध है कि समस्त जीवों में ज्ञान का अस्तित्व रहता है। आवृत ज्ञान और अनावृत ज्ञान भी एक ही है; जैसे- सूर्य और चन्द्र मेघ और राहु द्वारा ढके जाने १. (क) आत्मतत्वविचार से पृ. ३१० (ख) विराधयन्ति ये ज्ञानं, मनसा ते भवान्तरे । शून्यमनसोमर्त्या, विवेक-परिवर्जिताः ॥ विराधयन्ति ये ज्ञानं वचसाऽपि दुर्धियः । मूकत्व - मुखरोगित्व - दोषास्तेषामसंशयम् ॥ विराधयन्ति ये ज्ञानं कायेनायत्नवर्तिनी । दुष्ट- कुष्टादि- रोगाः स्युस्तेषां देहे विगर्हिते ॥ मनोवाक्काययोगैर्ये, ज्ञानस्याशतनां तदा । कुर्वते मूढमतयः, कारयन्ति परावपि ॥ तेषां पर भवे पुत्र कलत्र - सुहृदां क्षयः । धन-धान्य-विनाशश्च तथाऽऽधि-व्याधि-सम्भवः ॥ २. रे कर्म तेरी गति न्यारी से, पृ. ६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only - आत्मतत्व विचार पृ. ३११ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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