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मूल प्रकृतिबन्ध : स्वभाव, स्वरूप और कारण २१३
(५) ज्ञानासादन - ज्ञानासादन है - ज्ञान, ज्ञानी अथवा ज्ञान के साधनों की अविनय-आशातना करना, ज्ञानी को दुःखी या पीड़ित करना, उनका अपमान करना । ज्ञान के साधनों को ठुकराना, जला देना, फाड़ देना, फेंक देना आदि चेष्टाएँ भी ज्ञानासादन है।
(६) उपघात - ज्ञानी, ज्ञान या ज्ञान के साधनों को नष्ट करना, या विद्वानों के साथ मिथ्याग्रह या पूर्वाग्रहवश व्यर्थ विवाद करना अथवा कलुषित भाव से सत्य को असत्य सिद्ध करने का प्रयास करना, अपने मिथ्यामत को सत्य सिद्ध करने का प्रयत्न करना भी ज्ञानोपघात है । '
ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के कारण : आगमों के अनुसार व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में भगवान् से गौतम गणधर ने प्रश्न किया- भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म (कार्मणशरीर) का प्रयोगबन्ध किस कर्म के उदय से होता है ?
इसके उत्तर में उन्होंने कहा- गौतम ! ज्ञानी की प्रत्यनीकता - शत्रुता करने से, ज्ञान को छिपाने से, ज्ञान में दोष निकलने से, ज्ञान एवं ज्ञानी का अविनय करने से, एवं ज्ञानी के प्रति व्यर्थ विसंवाद करने से ज्ञानावरणीय कर्म का आस्रव एवं बन्ध होता है । २
ज्ञान
ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के दुष्परिणाम
एक आचार्य ने ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध का दुष्परिणाम बताते हुए कहा है- " जो मूढमति मन, वचन और काया से ज्ञान एवं ज्ञानी की विराधना - आशातना करते हैं, शून्यमनस्क और विवेकहीन होते हैं। वे दुर्बुद्धि, गूंगे तथा मुख-रोगी आदि दोषों से ग्रस्त होते हैं। उपयोगहीन कायचेष्टा द्वारा ज्ञान की विराधना करने से उनके निन्द्य शरीर में कोढ़ आदि रोग होते हैं। जो स्वयं तथा दूसरों से सदा ज्ञान की आशातना करते हैं, परभव में उनके पुत्र, स्त्री एवं मित्रों का क्षय होता है, धन-धान्य का विनाश . होता है, आधि-व्याथि उत्पन्न होती हैं। "
वरदत्त - गुणमंजरी की कथा में आता है कि गुणमंजरी ने सुन्दरी के पूर्वभव में बालकों को पढ़ने (ज्ञान) के साधन जला डाले थे, इसके फलस्वरूप वह इस भव में गूँगी और रुग्ण हुई।
१. (क) तत्प्रदोष निह्नव मात्सर्यमन्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ।
(ख) तत्त्वार्थ सूत्र, विवेचन (पं. सुखलाल जी) से, पृ. १५८
(ग) तत्त्वार्थ सूत्र, विवेचन ( उपाध्याय केवलमुनि) से, पृ. २७१-२७२
२. णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पओग-बंधणं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएण ?
गोयमा ! नाणपडिणीययाए, णाण- निण्हवणयाए, णाणंतराएणं णाणप्पदोसेणं णाणच्चासायणयाए, गाण-विसंवादणाजोगे .. एवं जहा णाणावरणिज्जं नवरं दंसण नाम घेतव्वं ।'
व्याख्याप्रज्ञप्ति, श८, उ. ९, सू. ७५-७६
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-तत्त्वार्थसूत्र ६/११
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