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________________ २१२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) प्रगट होता है। अर्थात्-आत्मा में सब कुछ जानने की शक्ति होते हुए भी वह ज्ञानावरणीय कर्म के कारण जान नहीं पाता। ज्ञानावरणीय कर्म का जितना क्षयोपशम होगा, आत्मा को उतना ही ज्ञान होगा, उससे अधिक नहीं। किसी व्यक्ति को किसी वस्तु का पहले ज्ञान था, और अब वह उसे स्मरण करना चाहता है, किन्तु बहुत प्रयत्न करने पर भी वह वस्तु याद नहीं आती, दो दिन बाद अकस्मात् ही उसका स्मरण एवं स्फुरण हो जाता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि विस्मृति के समय आत्मा में ज्ञान नहीं था, ज्ञान तो मौजूद था, अन्यथा दो दिन बाद वह वस्तु कैसे याद आती ? विस्मृति का कारण था-ज्ञान पर आवरण। ज्ञान को रोकने वाली वस्तु वहाँ मौजूद थी। जैसे-दीपक कपड़े से ढका हो तो प्रकाश नहीं आता, उसे हटा देने पर तुरन्त प्रकाश प्रगट हो जाता है। इसी प्रकार ज्ञान के आवृत होने और प्रकाशित होने की बात समझनी चाहिए।' ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के मुख्य कारण __ ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के मुख्यतया ६ कारण हैं-(१) प्रदोष-सम्यग्ज्ञान अथवा ज्ञानी का अवर्णवाद (निन्दा करना), उनके दोष निकालना, विरोधं प्रकट करते रहना अथवा सम्यग्ज्ञान एवं उसके वक्ता के प्रति द्वेषभाव रखना, सम्यग्ज्ञान के जो साधन हैं, जो सम्यग्ज्ञान प्रदान करते हैं, उनके प्रति रोष, द्वेष और ईर्ष्या करना। (२) निह्नव-कोई किसी से पूछे या ज्ञान के साधन की माँग करे, तब ज्ञान एवं ज्ञान के साधन पास में होने पर भी कलुषित भाव से यह कहना कि मैं नहीं जानता, अथवा मेरे पास वह वस्तु है ही नहीं, ज्ञान-निह्नव है। ज्ञानी या ज्ञानदाता का अथवा ज्ञान जिस ग्रन्थ से या विद्वान से प्राप्त हुआ हो, उनका उपकार न मानना, नाम छिपाना ज्ञान-निह्नव है। अथवा वीतराग सर्वज्ञ अर्हतु प्रभु के द्वारा प्ररूपित तत्वस्वरूप के विपरीत स्व-कल्पित मत-प्ररूपणा करना भी निह्नव कहलाता है। जमाली आदि नौ निह्नव आगमों में प्रसिद्ध हैं। (३) मात्सर्य-ज्ञान और ज्ञानी के प्रति डाह, जलन एवं ईर्ष्या रखना ज्ञान-मात्सर्य है। अथवा ज्ञान अभ्यस्त एवं परिपक्व हो, तथा ज्ञान को ग्रहण करने वाला योग्य अधिकारी हो, फिर भी मात्सर्यवश उसे न देने की. कलुषित वृत्ति रखना भी ज्ञान-मात्सर्य है। (४) अन्तराय-कलुषित भाव से किसी की ज्ञान-प्राप्ति में बाधा पहुँचाना, ज्ञानाभ्यास में विज डालना, पुस्तक आदि ज्ञान के साधनों को छिपा देना ज्ञानान्तराय है। दूसरा कोई ज्ञान दे रहा हो, तत्वज्ञान सिखा रहा हो, तब वाणी या कायचेष्टा के संकेत से उसे रोक देना, ज्ञानप्राप्ति में बाधक बनना, अथवा कह देना-यह मंदबुद्धि है, कुछ सीख नहीं सकता, व्यर्थ समय बर्बाद करना है, यह भी ज्ञानान्तराय है। १. (क) आत्मतत्व विचार से, पृ. ३१० (ख) जैनदृष्टिए कर्म से, पृ. ४६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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