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________________ २१८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) यह है कि वेदनीय कर्म के उदय से आत्मा में भौतिक एवं अल्पस्थायी सुख-दुःख की अनुभूति रूप विकृति पैदा होती है। वेदनीय कर्म के दो भेद हैं-सातावेदनीय और असातावेदनीय। असातावेदनीय कर्मबन्ध के कारण __ तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार असातावेदनीय कर्मबन्ध के ६ कारण हैं-(१) दुःखआकुलता-व्याकुलता, भय या पीड़ा का अनुभव होना, (२) शोक-इष्ट वस्तु या व्यक्ति के वियोग और अनिष्ट वस्तु या व्यक्ति के संयोग होने पर चिन्ता, क्षोभ, व्यग्रता होना। तथा वह कैसे दूर हो ? इस प्रकार का भाव शोक है। (३) ताप-निन्दा, अपमान आदि से मन में संताप होना। (४) आक्रन्दन-दुःख, भीति, विपत्ति या विपरीत परिस्थिति से प्रताड़ित, पीडित या परितप्त होकर रोना, चिल्लाना, विलापं करना, आंसू बहाना, उच्च स्वर से रोना, छाती-माथा कूटना। (५) वध-अन्य जीवों के इन्द्रिय आदि दस प्राणों में से किसी भी प्राण को पीड़ित करना, ताड़ना, तर्जना, डांटना-फटकारना, मारा-पीटना, कटु वचन बोलना इत्यादि प्रकार से संताप देना वध है। (६) परिदेवन-ऐसा दीनताभरा विलाप करना कि सुनने वाले के मन में दया उत्पन्न हो जाए, गिड़गिड़ाना, दीनता प्रदर्शित करना, अपनी हीनता आंसू बहाकर प्रगट. करना आदि परिदेवन है। इन ६ कारणों से असातावेदनीय कर्मबन्ध होता है। इन ६ क्रियाओं की मन्दता-तीव्रता के आधार पर इनके १२ प्रकार हो जाते हैं। भगवतीसूत्र में असातावेदनीय कर्मबन्ध के कारणों का उल्लेख करते हुए कहा गया है-“दूसरों को दुःख देने से, दूसरों को शोक उत्पन्न कराने से, दूसरों को झुराने से, दूसरों को रुदन कराने से, दूसरों को मारने-पीटने और सताने से तथा दूसरों को संताप देने से, एवं बहुत-से प्राणियों और जीवों को दुःख देने तथा शोक उत्पन्न कराने से. यावत् परिताप देने से जीव असातावेदनीय कर्मों का बन्ध (आनव-हेतु) करते हैं।" ___असातावेदनीय कर्मबन्ध ये ही ६ कारण 'स्व' और 'पर' की अपेक्षा से १२ प्रकार के हो जाते हैं। 'स्व' और 'पर' की अपेक्षा पर आधारित तत्त्वार्थसूत्र का यह दृष्टिकोण यहाँ अधिक संगत प्रतीत होता है। कर्मग्रन्थ में उक्त असातावेदनीय कर्मबन्ध के कारण कर्मग्रन्थ में सातावेदनीय कर्मबन्ध के कारणों से विपरीत असातावेदनीय कर्मबन्ध के ८ कारण बताए गये हैं-(१) गुरुजनों की अभक्ति-माता, पिता, अध्यापक, १. (क) दुःख-शोक-तापाक्रन्दन-वध-परिदेवनान्यात्म-परोभयस्थान्यसवेधस्य । -तत्त्वार्थसूत्र ६/११ (ख) तत्त्वार्थसूत्र, (प. सुखलालजी) से, पृ. १५९ (ग) तत्त्वार्य विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से, पृ. २७३ २. परदुक्खणयाए परसोयणयाए परतिप्पणयाए परपिट्टणयाए परियावणयाए बहूर्ण जाव सत्ताणं दुक्खमयाए सोयणयाए जाव परियावणयाए एवं खलु गोयमा ! जीवाणं असायावेयणिज्जा कम्मा किज्जते । -भगवतीसूत्र श. ७, उ. ६, सृ. २८६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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