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________________ प्रकृतिबन्ध : मूल प्रकृतियाँ और स्वरूप २07 कर्म की एक प्रकृति है-सुषुप्ति-कारक। आत्मा की एक प्रकृति है-सदैव जागृत-जागरूक रहने, देखने की; परन्तु सुषुप्ति या अजागृति पैदा करने के स्वभाव वाला कर्म उसमें बाधक बनता है। ऐसे स्वभाव वाला कर्म है-दर्शनावरणीय। इस कर्म की प्रकृति, कार्य या स्वभाव है-दर्शन की-जागृति की शक्ति पर आवरण डालना, अनन्त दर्शन की अभिव्यक्ति में बाधा डालना। ___ आत्मा में अनन्त अव्याबाध आत्मिक सुख है-आनन्द है। वह उसका मूल स्वभाव है। किन्तु मूर्छाकारक प्रकृति वाला या विकारक स्वभाव वाला मोहनीय कर्म आत्मा के उस असीम आनन्द को विकृत कर देता है। जीव पर मोह का पर्दा डाल कर कठिन परिस्थिति में अनाकुल रहने की उसकी आनन्द-प्रकृति को कुण्ठित, विकृत और ध्वस्त कर डालता है। किसी ने अपमान कर दिया तो अहंकार हुंकार करेगाप्रतीकार करने लगेगा, कषाय पर विजय पाना दुष्कर हो जाएगा। मोहनीय कर्म जरा-सी कठिन परिस्थिति में व्यक्ति को भयभीत, चिन्तित और विचलित करके चारित्र से स्खलित, कुण्ठित कर देता है। कर्म की एक प्रकृति है-शक्ति-प्रतिरोधक। वह आत्मा की दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य (तपःशक्ति, परीषह-उपसर्ग-सहनशक्ति, तितिक्षाशक्ति तथा त्याग-प्रत्यख्यान एवं संयम की शक्ति) को कुण्ठित प्रतिरुद्ध एवं संदिग्ध कर देती है। आत्मा की अनन्त शक्ति भय, विषाद, क्रोधादि कषाय, हास्य-काम आदि नौ नोकषाय, राग, द्वेष, मोह, आसक्ति आदि से दब जाती है। कर्म की इसी प्रतिरोधक प्रकृति या शक्ति के कारण व्यक्ति स्खलित हो जाता है। कर्म की चार घाति-प्रकृतियों में प्रबल : मोहनीय कर्म - कर्म की इन चारों प्रकार की प्रकृतियों में सबसे प्रबल है-विकारक या मूर्छाकारक प्रकृति। यह शक्ति मोहनीय कर्म से सम्बन्धित है। इसकी प्रकृति चेतना को विकृत करने की, बिगाड़ने की और मूर्छित करने की है। मोहनीयकर्म चेतना को सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र दोनों ओर से मूर्छित और दिङ्मूढ़ बना देता है। मूर्छा एवं मूढ़ता के कारण व्यक्ति जीवन की सत्यता तथा आत्मा की स्वाभाविक शक्तियों से अपरिचित रहता है। मूर्छा का घेरा इतना सघन होता है, कि प्राणी की कई जिंदगियाँ बीत जाती हैं, फिर भी उसे सत्य का बोध नहीं हो पाता। जहाँ सत्य का ही बोध न हो, वहाँ चारित्र-साधना के लिये रुचि, पराक्रम, साहस और संकल्प कैसे हो सकता है? अतः मोहनीय कर्म आत्मा के निज स्वभाव के प्रति भ्रान्त धारणा उत्पन्न करके परवस्तु के प्राप्ति अहंत्व-ममत्व या मोहभाव उत्पन्न करता है। सत्यज्ञान उत्पन्न होने पर भी यह कर्म तदनुरूप सम्यक् आचरण में बाधा पैदा करता है। १. वही, भावाशग्रहण, पृ. २१८, २२० २ (क) जैनधर्म : अर्हत् और अर्हताएँ, से भावांशग्रहण, पृ, २२१ . (ख) जैनधर्म और दर्शन (गणेश ललवानी) से भावांशग्रहण, पृ. १०५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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