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________________ २00 कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) प्रकृतियों को नहीं समझना। जो व्यक्ति कर्म की प्रकृति, शक्ति, स्वभाव या आकृति को नहीं जानता, वह दुःखों से बचाव के मार्ग को नहीं समझ सकता। किन्तु आज अधिकांशतः व्यक्ति भौतिकता की चकाचौंध में जीता है। अन्दर से दुःखी और संत्रस्त होते हुए भी बाहर से सुखी और सम्पन्न दिखाने की चेष्टा करता है। उसका व्यक्तित्व घर और बाहर में अलग-अलग है। घर में उसका चेहरा क्रूर, लड़ाकू और स्वार्थी बना रहता है, और बाहर में, समाज में, नगर में और राष्ट्र में वह शरीफ, सज्जन, समाजसेवी और उदार बना रहता है। कभी-कभी वह मन में कुछ और सोचता है, वचन से बहुत मधुरभाषी दिखता है, और व्यवहार से वह बिलकुल ही विपरीत होता है। उसकी बाहरी प्रकृति अलग प्रतीत होती है और भीतरी अलग। बाह्य रूप भिन्न होता है, आन्तरिक रूप भिन्न। ऊपर से प्रसन्न चेहरा लिये फिरता है, किन्तु भीतर में दुःखों की ज्वाला धधक रही होती है। इसका कारण वह स्वयं नहीं समझ पाता; क्योंकि उसकी बाहरी प्रकृति समाज के साथ जुड़ी हुई होती है और भीतरी प्रकृति कों के साथ जुड़ी हुई है, जिसे वह पहचान नहीं पाता; न ही जानने-समझने का प्रयत्न करता है। यदि वह कर्म-प्रकृति को भली-भांति-जान-समझ ले, तो अपने इस दोहरे व्यक्तित्व से छुटकारा पा सकता है, अपने असली और शुभ व्यक्तित्व को उभार सकता है; प्रकृतिबन्ध को समझ कर ही इस अन्तर-को, बाह्य-भिन्नता को दूर किया जा सकता है। कर्मप्रकृतियाँ : आत्मा के मूल स्वभाव की आवारक, सुषुप्तिकारक, मूर्छाकारक और प्रतिरोधक आत्मा के मूल स्वभाव चार हैं-(१) ज्ञान, (२) दर्शन, (३) अव्याबाध सुख (आनन्द) और आत्मशक्ति (वीर्य)। दूसरे शब्दों में इन चारों को यों कहा जा सकता है-(१) प्रकाश, (२) जागृति, (३) अनाकुलता और (४) शक्ति का अस्खलन। इसके विपरीर्ते कर्म की प्रकृतियाँ भी चार हैं-(१) आवारक, (२) सुषुप्तिकारक, (३) मूर्छा-कारक या विकारक और (४) शक्ति-प्रतिरोधका आवारक का अर्थ है-आवृत करने वाला, दबाने वाला। जिस प्रकार बादल सूर्य को आवृत कर देते हैं, उसकी रोशनी को दबा देते हैं। उसी प्रकार प्राणी की चेतना के अखण्ड सूर्य को कुछ कर्म-मेघ ऐसे हैं, जो ढक देते हैं। इस प्रकार कर्म की एक प्रकृति है-आवृत करने या आच्छादित करने की। वे हैं-ज्ञानावरण और दर्शनावरण। चेतना का कार्य है-प्रकाशित रहना, स्व-पर को यथार्थ-रूप से और पूर्णरूप से जानना; परन्तु ज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृति है-ज्ञान को आवृत कर देने की, ज्ञान की-अनन्तज्ञान की अभिव्यक्ति में बाधा डालने की। १. जैनधर्म : अर्हत् और अर्हताएँ से भावांशग्रहण पृ. २२१-२२२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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