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________________ प्रकृतिबन्ध : मूल प्रकृतियाँ और स्वरूप १९९ उस मनुष्य के व्यक्तित्व का पता लगाया जा सकता है। कर्मविज्ञानवेत्ताओं का मन्तव्य है कि मनुष्य के यथार्थ व्यक्तित्व की जानकारी उसके कर्म-व्यक्तित्व से ही लंग सकती है। वस्तुतः आम आदमी कर्म के व्यक्तित्व (स्वभाव) के बारे में बहुत कम सोचता है। अशुभ कर्म का उदय होने पर जब दुःख, संकट या विपत्ति सिर पर आती है, तब वह कर्म के व्यक्तित्व पर ध्यान न देकर, निमित्तों को कोसता है, निमित्तों पर दोषारोपण करता है। यदि उस समय वह अपने कर्म के व्यक्तित्व पर विचार करे तो कर्मबन्ध की उत्तरप्रकृति को, उसकी स्थिति और रस को बदल सकता है, कदाचित् क्षय भी कर सकता है। प्रत्येक विचारवान् व्यक्ति कर्म की प्रकृति (व्यक्तित्व) को जानकर अपने स्वभाव का विश्लेषण कर सकता है और उसे शुभ में परिवर्तित कर सकता है। जो व्यक्ति कर्म की प्रकृति को नहीं जानता, वह अपनी प्रकृति को कैसे जानेगा? अपने कर्म के स्वभाव को जो नहीं जानता, वह अपने स्वभाव को भी नहीं बदल सकता। वस्तुतः मनुष्य का जो स्वभाव बनता है, उसको बनाने वाली सत्ता उसके ही भीतर है। उसे जाने बिना, न तो कर्म की उत्तरप्रकृति को बदला जा सकता है, और न ही उसकी निर्जरा के लिए पुरुषार्थ किया जा सकता है। मानव के परिवर्तन के लिए उसके स्वभाव (प्रकृति) का परिवर्तन आवश्यक है। अतः स्पष्ट है कि कर्म-प्रकृति को बदलने का फलितार्थ है-स्वभाव परिवर्तन, जीवनदृष्टि का परिवर्तन। कर्म-प्रकृति को जानने से स्वभाव और जीवन में परिवर्तन - अतः सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि व्यक्ति कर्म की प्रकृति को जाने, क्योंकि उसी के आधार पर जीवन का भव्य महल खड़ा होता है। ऐसी स्थिति में मानव कर्म-प्रकृतियों के बन्ध को केवल जानने के लिए ही न जाने, किन्तु उसे अपने जीवन के दैनन्दिन व्यवहार से जोड़ने के लिए जाने। तभी वह कर्म की प्रकृति (उत्तर-प्रकृति) में परिवर्तन कर सकता है, कर्म की स्थिति, अनुभाग और प्रदेश में परिवर्तन भी तभी शक्य होगा। कर्मप्रकृति को जानकर ही सत्ता में पड़े हुए कर्म की निर्जरा, उदीरणा और संक्रमण किया जा सकता है। और तभी स्वभाव-परिवर्तन की बात शक्य हो सकेगी। अतः स्वभाव-परिवर्तन, जीवन की दिशा में परिवर्तन, तथा अपने व्यक्तित्व को आध्यात्मिक दिशा में मोड़ने के लिए प्रकृतिबन्ध के सिलसिले में कर्म-प्रकृति को जानना अनिवार्य है। कर्म-प्रकृतियों से अज्ञ : दोहरे व्यक्तित्व से संत्रस्त ___ आज अधिकांश व्यक्ति धन और साधनों की प्रचुरता होते हुए भी, अथवा सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं के होते हुए भी मानसिक चिन्ता, तनाव, आधि, व्याधि, उपाधि आदि दुःखों से संतप्त हैं, संत्रस्त हैं। इन दुःखों का मूल कारण है-कर्म१. जैनधर्म : अर्हत् और अर्हताएँ से भावग्रहण, पृ. २२२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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