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________________ १९८ कर्म - विज्ञान : : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) Nature) का विश्लेषण (एनेलाइसिस - Analysis) स्वतः हो जाता है। कर्म को यथार्थरूप से पहचानने के लिए सर्वप्रथम कर्म का स्वभाव जाना जाता है। आत्मा के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म का स्वभाव कैसा है? या कैसा होगा? इसका निर्णय कर्म-बन्ध के समय ही हो जाता है। बांधा हुआ कर्म किस प्रकार का फल देगा ? इसका निर्णय कर्म की प्रकृति (स्वभाव) से हो जाता है। प्रकृति-बन्ध अर्थात् कर्म की प्रकृति का निर्णय आत्मा के द्वारा गृहीत कर्मपुद्गलों के बन्ध के साथ ही हो जाता है । प्रकृतिबन्ध स्वयं ही उक्त कर्म के स्वभाव का विश्लेषण, निर्णय और फल देने की शक्ति का हिसाब-किताब करता - रखता है । ' प्रकृतिबन्ध के सन्दर्भ में प्रकृति के अर्थ और लक्षण प्रकृतिबन्ध कर्म की प्रकृति बताता है। उसके द्वारा यह निर्णय हो जाता है, कि कौन-सा कर्म किस प्रकृति का है ? गोम्मटसार (क.) में कर्मबन्ध के सन्दर्भ में प्रकृति को शील, मूल, पुण्य-पापकर्म और स्वभाव का पर्यायवाची कहा गया है। पंचाध्यायी (पू.) में कहा गया है - शक्ति, लक्षण, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, शील और प्रकृति ये एकार्थवाचक हैं। आचार्य पूज्यपाद ने प्रकृति का अर्थ 'स्वभाव' बतलाकर उदाहरण देकर समझाया है कि जैसे - " नीम की प्रकृति कडुआपन है, गुड़ प्रकृति मीठापन है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृति है - ज्ञान को आवृत करना, अथवा पदार्थ का ज्ञान न होना।" धवला में 'प्रकृति' शब्द की व्युत्पत्ति की गई हैजिसके द्वारा आत्मा को अज्ञानादिरूप फल प्रदान किया जाता है, वह प्रकृति है। प्रकृति का लक्षण बताते हुए वहाँ कहा गया है - "जो कर्मस्कन्ध वर्तमान में फल देता है, और जो भविष्य में फल देगा, इन दोनों ही कर्मस्कन्धों की प्रकृति संज्ञा सिद्ध है।” इसका आशय यह है कि कौन-सा कर्म किस प्रकार का और कब फल देगा? इसका निर्माण बद्ध कर्म-स्कन्धों पर से प्रकृतिबन्ध करता है। यह प्रकृतिबन्ध का विषय है । २ बद्धकर्मों की प्रकृति पर से मानव-व्यक्तित्व का ज्ञान वर्तमान मनोविज्ञान ने मानवीय प्रकृतियों का गहराई से विश्लेषण किया है; और उसका दावा है कि प्रकृति पर से मनुष्य के व्यक्तित्व का विश्लेषण हो सकता है, परन्तु जैन कर्म-वैज्ञानिकों का कहना है कि मानव द्वारा बद्ध कर्म की प्रकृति पर से १. जैन दृष्टिए कर्म (डॉ. मोतीचंद गि. कापड़िया) से भावांशग्रहण, पृ. ४३ २. (क) गोम्मटसार (क.) गा. २ एवं ५२ (ख) पंचाध्यायी (पूर्वार्ध) का. ४८ (ग) पयडी सील सहावो इच्चेयट्ठो । (घ) प्रकृतिः मौलं कारणं' (ङ) प्रकृतिः स्वभावः । (च) प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मन इति प्रकृतिशब्द व्युत्पत्तेः । Jain Education International स्वभाववचनो वा । For Personal & Private Use Only - धवला पु. १२, खं. ४, भा. २ - सर्वार्थसिद्धि ८/३ - धवला पु. १२ पृ. ३०३ www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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