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________________ २०२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) यह हुआ चारों घातिकों के स्वभाव (प्रकृति) का विवेचन। ये चारों घातिकर्म आत्मा के पूर्वोक्त चारों गुणों का प्रबलरूप से घात करते हैं, इसलिए घातिकर्म कहलाते हैं। एक बात का ध्यान रखना है कि ज्ञानावरणीय आदि चारों घातिकर्म आत्मगुणों का पूर्णरूपेण सर्वथा घात नहीं कर पाते। आत्मा के ८ गुणों की बाधक : आठ कर्म प्रकृतियाँ अब हम आत्मा के अवशिष्ट चार गुणों को अघाति कर्म की चार प्रकृतियाँ कैसे और कौन-कौन से गुण को दबा देती है, प्रगट नहीं होने देती हैं- इस पर विचार करलें। यद्यपि आत्मा के अनन्त गुण हैं, फिर भी प्रकृतिबन्ध की अपेक्षा मुख्य आठ गुण बताए गए हैं, चार गुणों या स्वभावों का उल्लेख हम इससे पूर्व कर चुके हैं। आशय यह है कि जब कर्मपरमाणुओं का आत्मा के साथ बन्ध (श्लेष-संयोगसम्बन्ध) होता है, तब अन्य तीन वस्तुओं का निर्णय होता है-(१) जिन कर्मपरमाणुओं का आत्मा के साथ सम्बन्ध हुआ, उन कर्माणुओं में से कौन-कौन से कर्मपरमाणु आत्मा के किस-किस गुण को दबायेंगे? (२) वे आत्मा पर क्या-क्या प्रभाव डालेंगे? तथा (३) किन-किन शक्तियों को आवृत या कुण्ठित करेंगे? इन तीनों बातों पर से कर्म की प्रकृति (स्वभाव) नियत होती है। इसे ही जैन कर्म-विज्ञान में प्रकृतिबन्ध कहा जाता है। अमुक कर्माणुओं में आत्मा के ज्ञान और दर्शन के गुणों का अभिभव करने का स्वभाव निश्चित होता है, उन्हें क्रमशः ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कहते हैं। अमुक कर्माणुओं में आत्मिक सुख को दबाने का स्वभाव निश्चित होता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। इसी प्रकार आत्मा के वीर्य (आत्मशक्ति) गुण को दबाने का स्वभाव नियत होता है, उसे अन्तरायकर्म कहते हैं। __ आत्मा के शेष चार गुण इस प्रकार हैं-(१) अव्याबाध आत्मसुख, (२) अक्षय स्थिति, या शाश्वतता (३) अरूपित्व और (४) अंगुरुलघुत्व । इन चारों गुणों को बाधित करने का स्वभाव क्रमशः वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र कर्म का है। वेदनीय कर्म आत्मा के अव्याबाध सुख को रोक कर बाह्य सांसारिक सुख-दुःख का अनुभव कराता है। आयुष्यकर्म आत्मा के अक्षय स्थिति (अजरामरता) गुण को रोक कर जन्ममरणादि का अनुभव कराता है। नामकर्म आत्मा के अरूपित्व गुण को दबा कर मनुष्यादि रूप ग्रहण करने को बाध्य करता है, तथा जीव को पूर्ण या विकल अंग-प्रत्यंगादि, शरीर, यश-अपयश, वर्ण-गन्धादि नाना प्रकार की विकारजनित विभिन्नताएँ प्राप्त करवाता है। गोत्रकर्म आत्मा के अगुरुलघुत्व गुण को दबा या आवृत कर उच्च या नीच कुल का व्यवहार कराता है।२ १. बंधविहाणे (भूमिका) (आचार्य श्री विजयप्रेमसूरीश्वरजी) से, पृ. ३६ २. बंध विहाणे (भूमिका) से भावग्रहण, पृ. ३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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