SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रदेशबन्ध : स्वरूप, कार्य और कारण १९५ . प्रदेशरूप से बद्ध कर्मपुद्गलों में से किस कर्म को कितना भाग मिलता है ? .. कर्मग्रन्थ के पंचम भाग में प्रदेशबन्ध के सन्दर्भ में बताया गया है कि प्रदेशरूप से बद्ध होते समय उन बद्ध कर्मपुद्गलों का आठों कर्म-प्रकृतियों के रूप में विभाग हो जाता है प्रदेशबन्ध द्वारा बँधे हुए अनन्तानन्त कर्म-पुद्गलों में आयुकर्म का हिस्सा सबसे थोड़ा है। नाम और गोत्रकर्म का हिस्सा परस्पर समान है, किन्तु आयुकर्म के हिस्से से अधिक है। इसी प्रकार ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्म का हिस्सा आपस में समान है, किन्तु नाम और गोत्रकर्म के हिस्से से अधिक है। इनसे भी अधिक भाग मोहनीय कर्म को प्राप्त होता है, और सबसे अधिक भाग वेदनीयकर्म को मिलता है।' आठ कमों में इस प्रकार के विभाजन का रहस्य इस प्रकार के विभाजन का रहस्य इन कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति पर निर्भर है। सिर्फ वेदनीय कर्म को प्राप्त होने वाला सर्वाधिक भाग इसका अपवाद है। इसका कारण यह है कि जीव को वेदनीय कर्म का ही सुख-दुःख रूप वेदन अधिक और प्रतिसमय स्पष्टरूप से होता रहता है; जब कि आयुकर्म का वेदन तो नहींवत् होता है, दूसरे, आयुकर्म का बन्ध सर्वदा नहीं होता, जीवन में एक बार ही बंध होता है, और जब होता है, तब अन्तर्मुहूर्त तक ही होता है, उसके बाद नहीं होता। अन्य कर्मों के फल की अनुभूति भी जीव उतनी तीव्रता से नहीं करता, जितनी तीव्रता से वेदनीय कर्म के फल की अनुभूति करता है; इसी कारण वेदनीय कर्म का भाग सर्वाधिक है। यद्यपि मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति से वेदनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बहुत कम है; तथापि मोहनीय कर्म के भाग से वेदनीय कर्म का भाग अधिक है; क्योंकि बहुत द्रव्य के बिना वेदनीय कर्म के सुख-दुःखादि का अनुभव स्पष्ट नहीं होता। वेदनीय को अधिक पुद्गल मिलने पर ही वह अपना कार्य करने में समर्थ होता है। थोड़े कर्मदलिक मिलने पर वेदनीय कर्म प्रकट ही नहीं होता। इसी से थोड़ी स्थिति होने पर भी सर्वाधिक भाग मिलता है। तथा वेदनीय कर्म का उदय प्रतिक्षण होने से उसकी निर्जरा भी अधिक होती है, द्रव्य भी सर्वाधिक होता है। १. (क) थोयो आउ तदसो, नामे गोए समो अहिओ। विग्यावरणे मोहे सव्योवरि वेयणीय जेणप्पे ॥ ७९ ॥ तस्स फुडतं न हवई, ठिईविसेसेण सेसाणं ॥ ८० ॥ -कर्मग्रन्थ पंचम भाग गा. ७९-८० (ख) पंचम कर्मग्रन्य विवेचन (प. कैलाशचन्द्रजी), पृ. २२३-२२४ २. (क) कमसो वुड्ढ-ठिईणं भागो दलियस्स होइ सविसेसो । तइयस्स सव्वजेठो तस्स फुडत्त जओणप्पे ॥ -पंचसंग्रह (प्रा.) २८५ गा. (ख) कर्मग्रन्थ, पंचम भाग विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी), पृ. २२४ (ग) सुह-दुक्ख-णिमित्तादो, बहुणिज्जरगो ति वेयणीयस्स । सव्वेहितो बहुगे दव्वं होदि ति णिद्दिट्ट । -गोम्मटसार (कर्म.) १९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy