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________________ १९४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) नेश्चित न हो तो फिर कर्म एक ही प्रकार का रहेगा, और उसका परिणाम भी एक ही प्रकार का होगा; परन्तु कर्मविज्ञान के तथा प्राणिस्वभाव के एवं प्राणियों की वेविध योग-प्रवृत्तियों के अनुसार ऐसा होना कदापि सम्भव नहीं है। इसलिए प्रदेशबन्ध के रूप में बँधे हुए अनन्तानन्त पुद्गलों के उसी तरह विभिन्न विभाग हो जाते हैं, और वे कर्म अपने-अपने कर्म-वर्गणा के जत्थे में उसी प्रकार बद्ध-श्लिष्ट हो जाते हैं, जस प्रकार एक गोदाम में विभिन्न प्रकार की चीजें आती हैं, वे अपने-अपने ग्रुप समूह) में रख दी जाती हैं। जिस प्रकार उदर में आहार डालने पर वह अपने आप रस, रुधिर आदि में परिणत हो जाता है, तथा आमाशय, मस्तिष्क, हाथ, पैर आदि वेभिन्न अवयवों को स्वतः अमुक-अमुक भाग मिल जाता है, उसी प्रकार बद्ध होते समय कर्मों का भी योग-स्थानक के बल के अनुसार यथायोग्य भागों में विभाजन हो जाता है, तथा प्रकृतिबन्ध के रूप में उक्त विभाग के अनुसार उनके कार्यों का नियमन भी हो जाता है। कर्मों का स्वभाव एक-सरीखा न होने से, अर्थात्-विविध प्रकार का होने से प्रदेशबन्ध पड़ते समय ही विभिन्न प्रकार की कर्म प्रकृति के रूप में विभाग नर्मित हो जाता है। यानी कर्म भी बद्ध होते समय विभिन्न प्रकार की प्रकृति को लेकर बद्ध होता है। योगबल के अनुसार ही कर्मों के न्यूनाधिक प्रदेशों का बन्ध ___ संसार के प्रत्येक जीव में हर समय योगबल (योगस्थानक-बल) समान नहीं होता। उनमें संयोगवशात् कमी-बेशी होती रहती है। इस कमी-बेशी को ही कर्मविज्ञान में 'योग स्थानक' कहा गया है। जैसे किसी मशीन की शक्ति बताना हो तो 'होर्सपावर' शब्द का प्रयोग होता है। जैसे-अमुक मशीन १00 होर्स-पावर की है, अमुक मशीन २00 होर्स-पावर की है। इसी प्रकार बिजली की शक्ति बताने के लिए 'वोल्ट' या 'मेगावाट' शब्द का प्रयोग होता है। इसी प्रकार जीव के द्वारा मन-वचन-काया के योग (प्रवृत्ति या क्रिया) की शक्ति को बताने के लिए 'योग-स्थानक' शब्द का प्रयोग होता है। योगबल का प्रमाण अनन्तानन्त होने के कारण 'योग-स्थानक' भी असंख्य प्रकार के सम्भव हैं। संसारी जीवों में कोई न कोई योग-स्थानक अवश्य होता है, और वह (आत्मा) उस योगस्थानक के परिणाम के अनुसार ही कार्मण-वर्गणाएं ग्रहण करता है। अगर योगस्थानक मंद हो तो आत्मा कम कार्मण वर्गणाएँ ग्रहण करती है, और योगस्थानक तीव्र, तीव्रतर या तीव्रतम हो तो उसी के अनुरूप अधिक, अधिकतर या अधिकतम कर्मवर्गणाएँ ग्रहण करती है। जैसे-करघा धीमे चलता हो तो कपड़ा कम बुना जाता है और तेज चलता हो तो अधिक। अतः कर्मवर्गणाएँ ग्रहण करते ही आत्मप्रदेशों के साथ प्रदेशबन्ध के रूप में मिल जाती-बद्ध हो जाती हैं।२ १. (क) आत्मतत्त्व-विचार, पृ. २९५ (ख) जैनधर्म और दर्शन, पृ. ११२ २. आत्मतत्त्व-विचार से भावग्रहण, पृ. २९६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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