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________________ प्रदेशबन्ध : स्वरूप, कार्य और कारण १९३ अवस्थित-प्रविष्ट हो जाते हैं; जिस प्रकार लोह पिण्ड में अग्नि के कण अवस्थितप्रविष्ट हो जाते हैं। (६) केवल स्थिर होने से ही बन्ध होता है, क्योंकि गतिशील कर्म-स्कन्ध अस्थिर होने से बन्ध को प्राप्त नहीं होते। अर्थात्-कर्मस्कन्ध आत्मप्रदेशों के साथ दृढ़तापूर्वक स्थिर रूप होकर ही बँधते हैं। (७) प्रत्येक कर्म के अनन्त स्कन्धों का समग्र आत्मप्रदेशों के साथ बन्ध होता है, कुछ ही आत्मप्रदेशों के साथ नहीं। और (८) प्रदेशबन्ध के रूप में बाँधने वाले समस्त कर्मयोग्य स्कन्ध अनन्तानन्त परमाणुओं के ही बने होते हैं; किन्तु कोई भी कर्मयोग्य (प्रदेशबन्धयोग्य) स्कन्ध संख्यात, असंख्यात या अनन्त परमाणुओं का बना हुआ नहीं होता, क्योंकि प्रदेशबन्ध अनन्तानन्त कर्मस्कन्धों से ही होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा गया है-“सब कमों के प्रदेश अनन्त हैं, (अर्थात-आठों ही कर्मों के (मिलकर) प्रदेश अनन्तानन्त होते हैं)। उनकी संख्या अभव्यराशि से अधिक और भव्यराशि से कम है।"२ गृहीत कर्मस्कन्धों का विभाजन, आठ कमों में से किसको, कितना, किस क्रम से और क्यों ? प्रदेशबन्ध की पूर्वोक्त विशेषताओं को जानने के पश्चात् यह जिज्ञासा उठना स्वाभाविक है कि प्रदेशबन्ध तो सामान्यरूप से अनन्तानन्त कर्म-पुद्गल-स्कन्धों से होता है। प्रत्येक जीव प्रतिक्षण सात या आठ कर्मों का बन्ध करता है। केवल एक या दो प्रकार के कर्मों का बन्ध ही नहीं करता। आयुष्य कर्म तो जीवन में एक ही बार बाँधता है। जिस समय आयुष्य कर्म का बन्ध होता है, उस समय एक साथ आठों कर्म बद्ध होते हैं। अवशेष समय में अन्य सातों कर्म एक साथ बद्ध होते रहते हैं। प्रश्न यह है कि ग्रहण किये हुए अनन्तानन्त कर्मस्कन्धों का आठ कर्मों में किस प्रकार, कैसे और किसके अनुसार विभाजन हो जाता है ?अर्थात्-सर्वप्रथम यह विचारणीय है कि इन गृहीत कर्मस्कन्धों का किस क्रम से विभाग होता है, फिर इनमें से ज्ञानावरणीय आदि कर्म प्रकृतियों की रचना होती है तो आठ कर्म प्रकृतियों में से किस-किस को कितना- कितना भाग मिलता है ? यानी बँधे हुए कर्म-पुद्गलों का कर्म प्रकृतियों में किस प्रकार विभाजन होता है?३ बद्धकर्मों का आठ कर्मों में विभाजन क्यों और कैसे होता है ? इसका समाधान यह है कि कार्मणवर्गणाएँ आत्मप्रदेशों के साथ मिश्रित होती हैं, उस समय यदि कर्मवर्गणाओं का विभाग न हो, और उनका स्वभाव भी पृथक-पृथक १. (क) तत्त्वार्थसूत्र, विवेचन (पं. सुखलालजी) से, पृ. २०४ (ख) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (उपाध्याय केवलमुनि) से, पृ. ३९७ (ग) सव्वजीवाण कम्मं तु, संगहे छद्दिसागय । सव्येसु वि पएसेसु, सव्वं सव्येण बद्धग ॥ -उत्तराध्ययन, ३३/१५ २. सव्वेसिं चेव कम्माण, पएसग्गमणतर्ग। ___गंठिय-सत्ताइय, अंतो सिद्धाणमाहियं ॥ -उत्तराध्ययन ३३/१७ ३. (क) जैनधर्म और दर्शन, पृ. ११११ (ख) तत्त्वार्थसूत्र (उपाध्याय केवलमुनिजी), पृ. ३९८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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