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________________ १९२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) नहीं होता, केवल विशिष्ट संयोगमात्र होता है, जिसे कर्मविज्ञान में प्रदेशबन्ध कहा जाता है। प्रदेशबन्ध के परिष्कृत लक्षण में आठ प्रश्नों के उत्तर समाहित यही कारण है कि पं. सुखलालजी ने तत्त्वार्थसूत्र के पूर्वोक्त सूत्र के आधार पर कर्मस्कन्ध और आत्मप्रदेशों से सम्बन्धित आठ प्रश्न उठाएँ हैं - (१) जब कर्मस्कन्धों का बन्ध होता है, तब उसमें क्या निर्माण होता है ? (२) इन स्कन्धों का ऊँचे, नीचे या तिरछे किन आत्मप्रदेशों द्वारा ग्रहण होता है ? (३) सभी जीवों का कर्मबन्ध समान होता है या असमान ? यदि असमान होता है तो क्यों ? (४) वे कर्मस्कन्ध स्थूल होते हैं या सूक्ष्म ? (५) जीव (आत्म) - प्रदेश वाले क्षेत्र में रहे हुए कर्मस्कन्धों का ही जीव- प्रदेश के साथ बन्ध होता है या उससे भिन्न क्षेत्र में रहे हुए का भी होता है? (६) वे बन्ध के समय गतिशील होते हैं या स्थितिशील ? (७) उन कर्मस्कन्धों का सम्पूर्ण आत्मप्रदेशों में बन्ध होता है या कुछ ही आत्मप्रदेशों में ? (८) वे कर्मस्कन्ध संख्यात, असंख्यात, अनन्त या अनन्तानन्त में से कितने प्रदेश वाले होते हैं ? पूर्वोक्त सूत्र में निहित प्रदेशबन्ध से सम्बन्धित आठ प्रश्नों के उत्तर पूर्वोक्त आठ प्रश्नों के उत्तर पूर्वोक्त सूत्र से प्रतिफलित होते हैं - (१) आत्मप्रदेशों के साथ बँधने वाले कर्मपुद्गल-स्कन्धों के न्यूनाधिक परिमाण ( प्रदेशबन्ध ) पर से ही ज्ञानावरणीयादि मूलप्रकृतियों और उनकी उत्तरप्रकृतियों का निर्माण होता है। सारांश यह है कि उन कर्मस्कन्धों पर से उन-उन कर्म-प्रकृतियों की रचना होती है। इसलिए उन कर्मवर्गणास्कन्धों को सभी कर्मप्रकृतियों का कारण कहा जा सकता है। इसी कारण हमने प्रकृति-बन्ध से पहले प्रदेशबन्ध पर विश्लेषण और चिन्तन प्रस्तुत किया है। (२) उन कर्मस्कन्धों का ऊँची, नीची, तिरछी आदि (सभी) छहों दिशाओं में रहे हुए आत्मप्रदेशों द्वारा मन-वचन काया के योगों की विशेषता (हलन चलन आदि) से ग्रहण होता है। 'उत्तराध्ययन सूत्र' में भी इस तथ्य का समर्थन करते हुए कहा गया है - " समस्त जीवों का एक समय का कर्म-संग्रहण छहों दिशाओं से होता है, और आत्मा के समग्र प्रदेशों में सब प्रकार से (प्रदेश - ) बन्ध होता है।” (३) सभी जीवों के कर्मबन्ध के असमान होने का कारण यह है कि सबके शारीरिक, वाचिक और कायिक योग (व्यापार) समान नहीं होते । यही कारण है कि जीवों के योगों के तारतम्य के अनुसार प्रदेशबन्ध में भी तारतम्य आ जाता है। (४) कर्मयोग्य पुद्गलस्कन्ध स्थूल (बादर) नहीं होते, वे सूक्ष्म ही होते हैं। वैसे सूक्ष्म-स्कन्धों का ही कर्मवर्गणा में से ग्रहण होता है । (५) जीव ( आत्मा ) प्रदेश के क्षेत्र में रहे हुए कर्मस्कन्धों का ही बन्ध होता है, उसके बाहर के क्षेत्रों के कर्मस्कन्धों का नहीं। अर्थात्प्रदेशबन्ध तभी होता है, जब आत्मप्रदेश और कर्मस्कन्ध एकक्षेत्रावगाह हों। जिन आकाश-प्रदेशों में आत्मा अवस्थित है, उन्हीं में वे गृहीत कर्मस्कन्ध भी उसी प्रकार १. तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलालजी) विवेचन, पृ. २०३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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