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________________ १९६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) ____ आशय है कि वेदनीय के सिवाय शेष सात कर्मों को अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार भाग मिलता है। अर्थात्-जिस कर्म की जितनी अधिक स्थिति है, उसे अधिक भाग मिलता है और जिस कर्म की न्यून स्थिति है, उसे कम भाग मिलता है। गृहीत कर्मदलों का विभाजन किस क्रम से और क्यों होता है ? __ जैसे-आयुकर्म का भाग सबसे कम है, क्योंकि दूसरे कर्मों से उसकी स्थिति थोड़ी है। आयुकर्म से नाम और गोत्र, इन दोनों कमों का भाग अधिक है, क्योंकि आयुकर्म की स्थिति तेतीस सागरोपम की है, जबकि नाम और गोत्रकर्म की स्थिति बीस कोटाकोटी सागर है। अतः नाम और गोत्रकर्म की स्थिति समान होने से उन्हें बराबरबराबर हिस्सा मिलता है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्म की स्थिति तीस कोटाकोटी सागरोपम है। अतः नाम और गोत्रकर्म से इन तीनों कर्मों का भाग अधिक है, तथा इन तीनों की स्थिति बराबर होने से इनका भाग भी बराबर-बराबर है। इन तीनों कर्मों से मोहनीय कर्म का भाग अधिक है, क्योंकि उसकी स्थिति सत्तर कोटाकोटी सागरोपम है। परन्तु वेदनीय कर्म की स्थिति कम होने पर भी उसका भाग सबसे अधिक है, जिसका कारण हम पहले बता चुके हैं।' गृहीत कर्मदलों के बंध के अनुसार कर्मों में प्रदेशों का विभाजन ___ आशय यह है कि जिस समय जीव आयुकर्म का बन्ध करता है, उस समय जो कर्मदल ग्रहण किये जाते हैं, उसके आठ भाग हो जाते हैं। जिस समय आयुकर्म का बन्ध नहीं करता, उस समय जो कर्मदल ग्रहण करता है, उनका बँटबारा आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों में हो जाता है। जब दसवें गुणस्थान में आयु और मोहनीय कर्म के सिवाय शेष छह कमों का बन्ध करता है, उस समय गृहीत कर्मदल के ६ भाग हो जाते हैं। और जिस समय एक ही कर्म का बन्ध करता है, उस समय गृहीत कर्मदल उस एक कर्मरूप ही हो जाते हैं। इसीलिए गृहीत कर्मदल का आठ कर्मों में विभाजित होने का क्रम ऊपर बतलाया है।२ प्रदेशबन्ध से अनन्तानन्त कर्म प्रदेशों का आठ कर्मों में विभाजन जिस प्रकार कोई पुस्तक १00 पृष्ठ की होती है, कोई २00, ३00 या ४00पृष्ठ की होती है, उसी पृष्ठ संख्या के अनुसार उसकी जिल्दबंदी होगी। तथा उस एक ही पुस्तक में अलग-अलग विषयों के अनुसार पृथक्-पृथक् अध्यायों में उसका विभाजन किया जाता है। इसी प्रकार मन-वचन-काया के योगों की तीव्रता-मन्दता या न्यूनाधिकता के अनुसार उतने ही कर्मस्कन्धों (प्रदेशों) का आकर्षण या ग्रहण होकर उनका एक जत्थे में बन्ध होता है, साथ ही अनन्तानन्त-कर्म-प्रदेशों का योगस्थानक के बल के अनुसार पूर्वोक्त प्रकार से विभिन्न भागों में, एवं विभिन्न प्रकृतियों में विभाजन हो जाता है। यही प्रदेशबन्ध का स्वरूप और कार्य है। .. १. कर्मग्रन्थ पंचम भाग, विवेचन (प. कैलाशचन्द्रजी), पृ. २२४-२२५ २. वही, पृ. २२४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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