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________________ प्रदेशबन्ध : स्वरूप, कार्य और कारण १८९ कालमर्यादा) का निर्णय भी शुभाशुभ परिणामानुसार होता है। प्रदेशों की संख्या के आधार पर कर्मफलानुभव या कर्म-स्थिति का निर्णय नहीं होता । १ अनन्तानन्त कर्मपरमाणुओं से गठित स्कन्ध ही प्रदेशबन्ध का विषय कर्म-विज्ञान का यह नियम है कि आत्मा के साथ बद्ध होने के लिए आगत कार्मण-वर्गणा के स्कन्ध समूह संख्येय, असंख्येय या अनन्त परमाणुओं से गठित न होकर अनन्तानन्त परमाणुओं से गठित होते हैं। अर्थात् - जीव जब भी कर्मपरमाणुओं से निर्मित कार्मण-स्कन्ध (कर्मयोग्य - परमाणु पुंज) को ग्रहण करता है, तब अनन्तानन्त परमाणु वाले स्कन्ध को ग्रहण करता है, संख्यात (जिनकी गणना की जा सके), असंख्यात (जिनकी अंकों से गणना न की जा सके) अनन्त ( जिनका अन्त न हो, ऐसे) परमाणुओं से निर्मित कार्मण-स्कन्ध को नहीं। ऐसा कर्म विज्ञान का प्रकृतिसिद्ध नियम है। प्रदेशबन्ध अनन्तानन्त प्रदेशों का ही होता है : क्यों और कैसे ? पं कोई भी समय-प्रबद्ध अनन्त प्रदेशों से कम का नहीं होता, तथापि जघन्य से उत्कृष्ट - पर्यन्त अनन्त भी अनेक प्रकार का होता है; जिसके कारण किसी समयप्रबद्ध में कम अनन्त- प्रदेश होते हैं और किसी में अधिक अनन्त । समय-प्रबद्ध की तो बात नहीं, एक-एक निषेक में भी अनन्तानन्त प्रदेश हैं। २ इसलिए एक या संख्यातप्रदेशी स्कन्ध कदापि व्यवहार का विषय नहीं हो सकता। अनन्तानन्त परमाणु-निर्मित स्कन्ध आत्मा के समग्र कार्मण शरीर के साथ मिलित होते हैं आशय यह है कि मन-वचन काया से कर्मवर्गणा के अनन्तानन्त- परमाणु- निर्मित स्कन्ध जब आत्मा के साथ मिलित होने आते हैं, तो आत्मा के किसी एक प्रदेश से नहीं, बल्कि आत्मा के समग्र कार्मण शरीर के साथ मिलित होते हैं; क्योंकि जैन दर्शनानुसार आत्मा शरीर के किसी एक अंश में अवस्थित नहीं रहती, अपितु वह . समग्र शरीर को व्याप्त कर अवस्थान करती है। जीव निकटवर्ती कर्मवर्गणाओं को समग्र आत्म प्रदेशों से ग्रहण करता है यह तो कर्मबन्ध के सन्दर्भ में हम बता आए हैं कि समग्र लोक पुद्गल द्रव्य से काजल की कुप्पी की तरह ठसाठस भरा हुआ है और वह पुद्गल द्रव्य अनेक १. (क) कर्म अने आत्मानो संयोग (ले. - अध्यायी) से भावग्रहण, पृ. २०, २२ (ख) कर्मसिद्धान्त, पृ. ८३ २. (क) जैनधर्म और दर्शन ( गणेश ललवानी), पृ. १११ (ख) ज्ञान का अमृत (पं. ज्ञानमुनिजी), पृ. ८७ (ग) कर्म - सिद्धान्त ( जिनेन्द्र वर्णी), पृ. ७७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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