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________________ १८८ कर्म - विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) आत्मा और कर्मपुद्गल एक दूसरे से बद्ध, स्पृष्ट, अवगाढ़ और प्रतिबद्ध कैसे होते हैं ? प्रदेशबन्ध के इसी तथ्य को भगवती सूत्र में स्पष्ट किया गया है। गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा - " भगवन् ! क्या जीव और पुद्गल अन्योन्य - एक दूसरे से बद्ध, एक-दूसरे से स्पृष्ट, एक दूसरे में अवगाढ़, तथा एक दूसरे में स्नेह-प्रतिबद्ध हैं एवं एक दूसरे में एकमेक होकर रहते हैं ?" उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा" गौतम ! हाँ, वे रहते हैं। " गौतम - "भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं ?" भगवान् -“गौतम ! जैसे- एक ऐसा हद हो, जो जल से परिपूर्ण, जल से किनारे तक भरा हुआ, जल से लबालब भरा, जल से ऊपर उठा हुआ, और भरे हुए घड़े की तरह स्थित हो; उस हद में यदि कोई व्यक्ति एक बड़ी सौ छिद्रों (सौ आंनवद्वारों) वाली नौका छोड़े तो वह नौका उन आनवद्वारों (छिद्रों) द्वारा भरती भरती जल से पूर्ण ऊपर तक भरी हुई, बढ़ते हुए जल से आच्छादित होकर, जल-परिपूर्ण घड़े की तरह होगी या नहीं ?" गौतम -“हाँ, भगवन् ! अवश्य होगी।” भगवान् - "हे गौतम ! इसी हेतु से मैं कहता हूँ कि (हृद और नौका के समान) जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध स्पृष्ट, अवगाढ़ और स्नेह - प्रतिबद्ध हैं, तथा परस्पर एकमेक होकर रहते हैं। "१ इसी प्रकार आत्म प्रदेशों और कर्म - पुद्गल - प्रदेशों का सम्बन्ध प्रदेशबन्ध है। प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध को प्राथमिकता क्यों ? पहले कहा गया है कि प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध योगों पर आधारित हैं। योगास्रव का प्रथम कार्य - कर्मवर्गणा को खींचने का, तथा कर्मपरमाणुओं का जत्था एकत्रित करने का है। तत्पश्चात् उसका दूसरा कार्य है- उन कर्मस्कन्धों को मूल और उत्तर प्रकृतियों में बाँटने का। इसलिए परम्परागत क्रम को छोड़ कर हमने सर्वप्रथम प्रदेशबन्ध, फिर प्रकृतिबन्ध, तदनन्तर रसबन्ध और स्थितिबन्ध; यह क्रम रखा है। क्योंकि योगानव से पहले प्रदेशबन्ध और फिर प्रकृतिबन्ध होता है, इनका रसबन्ध और स्थितिबन्ध के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि वह बद्धकर्म कितने काल तक उदयमान रहेगा ? उसकी फलदायिनी शक्ति का तारतम्य कितना है? इनके साथ योगानव का कोई ताल्लुक नहीं है। यही कारण है कि मात्र प्रदेश बन्ध से जीव को कोई हानि-लाभ नहीं है, क्योंकि प्रदेश कम हों या अधिक, (कर्म-) फल तो तीव्र-मन्द रस ( अनुभाग ) के अनुसार होता है और स्थिति (कर्म के उदय में आने की १. भगवती सूत्र श. १, उ. ६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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