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प्रदेशबन्ध : स्वरूप, कार्य और कारण १८७ प्रदेशबंध में योगों की तरतमता के अनुसार कर्मपुद्गल प्रदेशों का बन्ध सिद्धान्त यह है कि मन, वचन और काया की प्रवृत्ति अर्थात् इन त्रिविध योगों की चंचलता जितनी अधिक तीव्र होगी, कर्मवर्गणा के स्कन्ध उतने ही अधिक बंधेंगे, जबकि योगों की प्रवृत्ति मन्द होगी तो कर्म-पुद्गलपरमाणुओं की संख्या का बन्ध भी उसी अनुपात में कम होगा। अर्थात्-योगों की चंचलता के अनुसार न्यूनाधिक रूप में जीव कर्म-परमाणु-पुद्गलों को ग्रहण करेगा, उतने ही कर्मवर्गणास्कन्ध आत्मप्रदेशों के साथ जुड़ेंगे। इसे ही आगमिक परिभाषा में प्रदेशबन्ध कहते हैं। ___ प्रदेशबन्ध में आत्म-प्रदेशों और कर्मप्रदेशों का जो परस्पर बन्ध-सम्बन्ध होता है, वह योगबल के अनुसार होता है। यों तो संसार में कर्मवर्गणा के पुद्गल सर्वत्र व्याप्त हैं। कोई भी ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ कर्मवर्गणा के पुद्गल न हों। परन्तु जीव योगबल (मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति) के निमित्त से ही प्रतिसमय, जिन अनन्त कर्म-योग्य परमाणु-पुद्गलों को सब दिशाओं से ग्रहण करता है, आकर्षित करता है, उन्हीं का बन्ध होता है, उसे ही प्रदेशबन्ध कहा जाता है। योगबल के बिना प्रदेशबन्ध नहीं होता। उस समय योगों की अल्पता या मन्दता हो तो कर्मपरमाणुओं का आगमन भी उस प्रमाण में कम होता है। योगों की प्रवृत्तियाँ या क्रियाएँ जितनी अधिक या तीव्र होंगी, उतने ही अति-प्रमाण में कर्मों का ग्रहण अधिक होगा। अर्थात-उतनी अधिक मात्रा में कर्म-परमाणु आत्मा की ओर आकर्षित होकर अपना सम्बन्ध स्थापित करेंगे, क्योंकि योगबल (क्रिया या प्रवृत्ति) पर से ही कर्म-परमाणुओं की मात्रा (प्रदेश) का निर्धारण होता है। अतः स्पष्ट है कि योगानव अल्प प्रमाण में हो तो कर्मप्रदेश की न्यूनता और योगानव अधिक प्रमाण में हो तो कर्मप्रदेश का आगमन अधिक मात्रा में होता है। प्रदेशबंध : आत्मा के प्रत्येक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म-प्रदेशों का बद्ध हो जाना ___पहले कहा गया है कि पुद्गल के एक परमाणु को एक प्रदेश कहते हैं। दो या दो से अधिक परमाणुओं द्वारा निर्मित द्रव्य को स्कन्ध कहते हैं। जैनदर्शन आत्मा में असंख्यात प्रदेश मानता है। अतः आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में से एक-एक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म-प्रदेशों का बन्ध होने का नाम ही प्रदेशबन्ध है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो पूर्वोक्त प्रकार से जीव (आत्मा) के प्रदेशों और कर्मपुद्गल के प्रदेशों का परस्पर बद्ध हो जाना प्रदेशबन्ध है।२ १. (क) धर्म और दर्शन में 'कर्मवाद : पर्यवेक्षण' शीर्षक लेख (आचार्य देवेन्द्रमुनि) से पृ. ९०
(ख) प्रदेशाः कर्मपुद्गलाः जीव-प्रदेशेषेष्वोतप्रोताः तद्रूप कर्म प्रदेशकर्म ।-भगवती वृत्ति १/४/४0 (ग) प्रदेशो दल-संचयः
(घ) नवतत्व-साहित्यसंग्रह : अवचूरि, नवतत्त्वप्रकरण गा. ७१ की वृत्ति २. कर्मवाद : पर्यवेक्षण, पृ. ९०
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