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________________ १८६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) कर्मपरमाणुओं के स्कन्धों की तरतमता (न्यूनाधिकता) का निर्णय प्रदेशबन्ध द्वारा होता है । ' प्रदेश और प्रदेशबन्ध का स्वरूप और कार्य स्पष्ट शब्दों में कहें तो - कर्मबन्ध के समय आत्मा के साथ कार्मण वर्गणा (कर्मदलिकों) का सम्बन्ध जितनी संख्या या परिमाण के साथ होता है, वह प्रदेशबन्ध कहलाता है। सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है - इयत्ता (संख्या) का अवधारण करना प्रदेश है। अर्थात्-कर्म रूप से परिणत पुद्गल-स्कन्धों का परमाणुओं की जानकारी करके निश्चय करना, प्रदेशबन्ध है। अथवा प्रकट रूप से दिष्ट-प्ररूपित हैं, उन्हें प्रदेश यानी परमाणु कहते हैं। जड़द्रव्य या पुद्गल का क्षुद्रतम अविभाज्य (निर्भाग) अंश प्रदेश है), इसे परमाणु भी कहते हैं। दूसरे शब्दों में- अविभाज्य आकाशावयव प्रदेश है। एक पुद्गल-परमाणु जितना स्थान घेरता है, उसे प्रदेश कहते हैं। उपचार से पुद्गल परमाणु भी प्रदेश कहलाता है। आत्मा के अविभाज्य अंश को आत्म - (जीव) प्रदेश और पुद्गल के अविभाज्य अंश (परमाणु) को पुद्गल - प्रदेश कहते हैं। अतः प्रदेशबन्ध का अर्थ हुआ - पुद्गल कर्म प्रदेशों का, आत्मा (जीव ) के प्रदेशों के साथ बन्ध होना प्रदेशबन्ध का फलितार्थ हुआ - आत्मा के साथ बंधने वाले कर्मपरमाणुओं के परिमाण या संख्या का निर्धारण - निश्चय करना । २ प्रदेशबन्ध : लक्षण, कार्य, स्वरूप आशय है कि आत्मा के साथ कार्मण-वर्गणा के स्कन्धों का जितना जुड़ना होता है, वही प्रदेशबन्ध कहलाता है। किस जीव ने कार्मण वर्गणा के कितने स्कन्धों को कितने परिमाण या संख्या में ग्रहण किया है, उसका निर्णय प्रदेशबन्ध से होता है। इसीलिए कई आचार्य - आत्मा के साथ कर्माणुओं के नीर-क्षीरवत् सम्बद्ध होने को प्रदेशबन्ध कहते हैं । ३ १. (क) जैन दृष्टिए कर्म (मोतीचंद गि. कापड़िया) से भावग्रहण पृ. ४२ (ख) आत्मतत्वविचार से, पृ. २९४ २. (क) इयत्तावधारणं प्रदेशः। कर्मभाव परिणत-पुद्गल स्कन्धानां परमाणु-परिच्छेदेनाव धारणं प्रदेशः - सर्वार्थसिद्धि ८/३/३७२ (प्रदेशबन्ध :) (ख) प्रदिश्यन्ते इति प्रदेशाः परमाणवः -वही २ / ३८ (म) निर्भागः आकाशावयवः प्रदेशः - कषायपाहुड २/२१२ (घ) जनधर्म और दर्शन (गणेश ललवानी), पृ. ११० (ङ) जैनदर्शन में आत्मविचार (डॉ. लालचन्द जैन) से, पृ. २३८ (च) रे कर्म ! तेरी गति न्यारी ( आ. श्री विजयगुणरत्नसूरीश्वरजी) से भावग्रहण, पृ. ५७ ३. (क) रे कर्म तेरी गति न्यारी से पृ. ५८ (ख) बंध - विहाणे (भूमिका) से, पृ. २२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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