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________________ १८० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) अनन्त सामर्थ्य को दबाने-कुण्ठित करने का स्वभाव होता है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न गृहीत कर्मपुद्गलों में भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रकृतियों-स्वभावों के उत्पन्न होने, अथवा वैसी-वैसी शक्ति पैदा हो जाती है-बंध जाती है, उसे प्रकृतिबन्ध कहते हैं। अभिप्राय यह है कि कर्म बांधते समय गृहीत कर्मदलिक आत्मा (जीव) पर पृथक्-पृथक् असर करते हैं, यह प्रकृतिबन्ध का विषय है। कर्मबन्ध होते समय ही इस प्रकृतिबन्ध का निर्णय स्वतः हो जाता है। जो कर्म यश-कीर्ति बढ़ाने की प्रकृति (स्वभाव) और शक्ति वाला होता है-वह यशकीर्ति-नामकर्म का बन्ध होकर जीव का यश बढ़ाता है, जो कर्म मनुष्यगति में ले जाने वाले मनुष्यगति नामकर्म की प्रकृति और शक्ति से युक्त होता है, वह मनुष्यगति में ले जाता है। जो कर्म सुन्दर रूप देने के स्वभाव वाला होता है, वह शुभ वर्णनाम-कर्म के बन्धानुसार सुरूप प्रदान करता है। इस प्रकार जो कर्म मूल प्रकृति और उत्तरप्रकृति के रूप में बहुविध स्वभाव वाला होता है, वहाँ प्रकृतिबन्ध होता है। इस प्रकार कुछ मोदकों का परिमाण दो तोला भार होता है, कोई मोदक एक छटांक का और कोई पावभर आदि का होता है। इसी प्रकार किन्हीं गृहीत कर्मस्कन्धों में परमाणुओं की संख्या अधिक और किन्हीं में कम होती है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न परमाणु-संख्याओं से युक्त कर्मदलों का आत्मा के साथ सम्बद्ध होना प्रदेशबन्ध कहलाता है। जिस प्रकार उक्त लड्डुओं में किन्हीं की एक सप्ताह तक, किन्हीं की एक पक्ष की, किन्हीं मोदकों की एक मास तक स्वभावरूप में रहने की कालमर्यादा या शक्ति होती है। इस कालमर्यादा को स्थिति कहते हैं। स्थिति के पूर्ण होने पर लड्डू अपने स्वभाव से चलित हो जाते हैं-बिगड़ जाते हैं-विरस हो जाते हैं। अर्थात्-यह लड्डू कितने दिन चलेगा, कब से बिगड़ने लगेगा ? और कब बिलकुल बिगड़ जाएगा? इसी प्रकार कर्म के टिकने की काल-सीमा (स्थिति) का निर्णय स्थितिबन्ध कहलाता है। इसी प्रकार कोई कर्मदल उत्कृष्टतः सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम तक, कोई बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम तक, कोई कर्म तेतीस सागरोपम तक और कोई जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक आत्मा के साथ रहते हैं। इस प्रकार विभिन्न कर्मदलों का आत्मा के साथ पृथक्-पृथक् काल-सीमा (स्थिति) तक बने रहने, अर्थात्-अपने स्वभाव का त्याग न करके आत्मा के साथ टिके रहने की कालमर्यादा का बन्ध होना, स्थितिबन्ध है। स्थिति के पूर्ण होने पर वे कर्म अपने स्वभाव का परित्याग करके आत्मा से पृथक् हो जाते हैं। आशय यह है कि आत्मा के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मदल कितने काल बाद उदय में आयेंगे, उसके बन्ध और उदय के बीच में कितना समय व्यतीत होगा और उदय में आने के बाद वह कर्म कितने समय तक फल-प्रदान करना चालू रखेगा, इन सब बातों का निर्णय स्थितिबन्ध में होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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