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कर्मबन्ध के अंगभूत चार रूप १८१
जैसे कुछ लड्डुओं में मधुररस कम होता है, कुछ में अधिक, कुछ में कटुरस कम होता है, कुछ में अधिक, इत्यादि प्रकार से मधुर-कटुक आदि रसों की न्यूनाधिकता देखी जाती है, वैसी ही कुछ कर्मदलों में शुभ या अशुभ रस कम या अधिक होता है। तथा उनमें तीव्रता-मन्दता भी होती है। इसी प्रकार विविध प्रकार के तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम शुभ-अशुभ रसों का कर्मपुद्गलों के रूप में बंध जाना यानी उत्पन्न हो जाना, रसबन्ध या अनुभाग-बन्ध कहलाता है । '
प्रकृति बन्ध की विशेषता
बन्ध का यह चार अंशों में विभाग कर्मविपाक की दृष्टि से किया गया है। कर्म आत्मा से लिप्त होते समय जीव के मन-वचन-काया के योग की शुभाशुभता, मन्दता- तीव्रता आदि कारणों से विशेष विशेष प्रकार की परिणति और आत्मा के विशेष- विशेष गुणों को आवृत- कुण्ठित - विकृत करने का स्वभाव लेकर बद्ध होते हैं। इस बन्ध को ही प्रकृतिबन्ध ( स्वभाव - निर्णयात्मक बन्ध ) कहा जाता है।
आटां, घी, गुड़ आदि वस्तुओं से अलग-अलग प्रकार का बना हुआ कोई लड्डू वायु करता है, कोई पित्त करता है और कोई कफ करता है। यह उक्त मोदकों का अलग-अलग स्वभाव है। इसी प्रकार कर्म भी स्वभावानुसार आत्मा पर अलग-अलग प्रकार से असर डालता है। स्वभावानुसार कोई कर्म ज्ञान को रोकता है, कोई कर्म दर्शन को और कोई कर्म शक्ति को रोकता है। पृथक्-पृथक् स्वभावानुसार कर्म भी अपना पृथक्-पृथक् फल देता है। कर्मबन्ध के समय ही उसके स्वभाव का निश्चय हो जाता है।
स्थितिबन्ध की विशेषता
रागद्वेषादि अध्यवसाय की तीव्रता और मन्दता के कारण दीर्घकाल या अल्पकाल की स्थिति को लेकर आत्मा के साथ कर्म-पुद्गलों का जो बन्ध होता है, उसे स्थितिबन्ध कहते हैं। जिस प्रकार अपराधी को कैद की सजा की मुद्दत ( कालावधि) अमुक दिवस या अमुक मास तक अथवा अमुक वर्ष आदि तक की है, उसी प्रकार कर्म की भी फल देने की अवधि (कालसीमा) होती है। अथवा जैसे वृक्ष को फल लगने और पकने का समय होता है। कर्म बांधते समय कर्म के पुद्गलों में वह काल नियत हो जाता है। घड़ी में चाबी देने पर उसकी अमुक घंटे या दिवस तक चलने की 'मर्यादा होती है, वैसे ही कर्मफल- प्रदान करने का काल कम से कम अन्तर्मुहूर्त का और अधिक से अधिक ७० कोड़ाकोड़ी सागरोपम का होता है। प्रत्येक बद्ध कर्म का निर्दिष्ट काल अतिक्रान्त (व्यतीत) हो जाने पर वे पुद्गल कर्मफल प्रदान कर आत्मा
१. (क) जैन दृष्टिए कर्म, (डॉ. मोतीचन्द गि. कापड़िया) से भावांशग्रहण, पृ. ४०-४१ (ख) कर्मग्रन्थ प्रथम भाग ( मरुधरकेसरी) गा. २ के विवेचन से, पृ. १३-१४
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