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________________ कर्मबन्ध के अंगभूत चार सप १७९ है, यह क्रमशः स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कहलाता है। ये दोनों बन्ध कषाय से होते हैं। कर्मबन्ध-चतुष्टय विभाग : दो अपेक्षाओं से इस प्रकार योग और कषाय द्वारा आत्मा के साथ जो कर्मपरमाणु बद्ध होते हैं, वे चार प्रकार से बद्ध होते हैं। यथा-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभाग-बन्ध या रसबन्ध और प्रदेशबन्ध। कर्मबन्ध का यह विभाग दो प्रकार से किया गया है-(१) कर्म विपाक की दृष्टि से और (२) कर्म-विपाक के काल की दृष्टि से। स्पष्ट है कि कर्म का आत्मा के साथ सम्बन्ध होता है, उसी वक्त तत्सम्बन्धित वार अंगों का निश्चय हो जाता है। प्रकृति का अर्थ होता है-स्वभाव (नेचर-Nature)। अर्थात् प्रत्येक ग्रहण किये हुए कर्म का स्वभाव किस प्रकार का होना है, इसका निर्णय बन्ध के समय ही हो जाता है। किसी कर्म का ज्ञान को आवृत करने का स्वभाव होता है, किसी का सुख-दुःख करने का स्वभाव होता है, इत्यादि। अर्थात-कर्म का असर कैसा होगा ? इस रीति-नीति का नाम प्रकृतिबन्ध है। स्थिति का अर्थ है-कालसीमा (ड्यूरेशनDuration)| अर्थात्-वह कर्म कितने काल तक रहेगा ? कब फल देना प्रारम्भ करेगा ? और उसके फेल की मुद्दत कितने काल तक की रहेगी? यह स्थितिबन्ध का विषय है। रस का अर्थ है-कर्मफल की तीव्रता-मन्दता (इन्टेन्सिटी-Intensity)| गृहीत कर्म के विपाक की तरतमता-गाढ़ता का न्यूनाधिक होना रसबन्ध है। रसबन्ध का काम है-फल देने के समय कम या अधिक परिणाम देना, तीव्र, सादा या मध्यम परिणाम अनुभव करना। प्रदेश का अर्थ है-कर्मबन्ध का दलिक (क्वान्टिटीQuantity) स्थिति या रस की अपेक्षा के बिना जो कर्म होने वाला कर्मवर्गणा के दलिक का जत्था प्रदेशबन्ध है।३।। ___बन्ध की चारों अवस्थाओं को समझाने के लिए मोदकों का दृष्ट्रान्त इन चारों प्रकारों को भलीभाँति समझने के लिए आचार्यों ने मोदक का दृष्टान्त दिया है-एक व्यक्ति ने वातनाशक पदार्थों से लड्डू बनाए। उन लड्डुओं का स्वभाव वात-व्याधि को मिटाने वाला है, दूसरे व्यक्ति ने पित्तनाशक पदार्थों से मोदक बनाए, उनका स्वभाव पित्त को शान्त करने वाला है; तीसरे व्यक्ति ने कफनाशक पदार्थों से लड्डू बनाए, जो कफ को नष्ट करने के स्वभाव वाले हैं। वैसे ही जीव (आत्मा) द्वारा गृहीत कर्मपुद्गलों में से कुछ में आत्मा के ज्ञानगुण को आवृत करने का स्वभाव है, किसी में आत्मा के दर्शनगुण को ढकने का स्वभाव होता है, किसी में आत्मा के १. जैन दर्शन (डॉ. महेन्द्र कुमार जैन), पृ. २२६ २. जैन धर्म और दर्शन (गणेश ललवानी), पृ. १०४ ३. जनदृष्टिए कर्म (डॉ. मोतीचन्द गि. कापड़िया), पृ. ४० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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