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________________ कर्मबन्ध के विभिन्न प्रकार और स्वरूप १६७ भावबन्ध होता है, वह भी अन्तर में मोह, राग-द्वेषादि के कारण होता है।. पंचाध्यायी में भी कहा गया है-“केवल प्रदेशों के सम्बन्ध मात्र से बन्ध (द्रव्यबन्ध) नहीं हो जाता, अपितु जीव के अशुद्ध भावों की अपेक्षा रखने से कर्मों के आकर्षण होने से (भावबन्धपूर्वक) जीव और कर्म दोनों का बन्ध होता है।"१ स्निग्ध-रूक्षवत् रागद्वेष से ही बन्ध, अन्यथा नहीं तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार दर्शनशास्त्र में स्निग्ध-रूक्षत्वाद् बन्धः' प्रसिद्ध है, वैसे ही कर्मशास्त्र में 'रागद्वेषाद् बन्धः" प्रसिद्ध है। राग आकर्षण शक्ति से युक्त होने से स्निग्ध के स्थान पर है, तथा द्वेष विकर्षण शक्ति से युक्त होने के कारण रूक्ष के स्थान पर है। जिस प्रकार परमाणुओं के मिल जाने मात्र से वे बन्धन को प्राप्त नहीं होते, उनमें स्थित स्निग्धत्व और रूक्षत्व के योग से ही वे बन्ध को प्राप्त होते हैं। उसी प्रकार कर्मों में प्रवृत्ति करने मात्र से चित्त बन्ध को प्राप्त नहीं होता, अपितु उन प्रवृत्तियों की पृष्ठभूमि में स्थित राग-द्वेष से ही चित्त बन्ध को प्राप्त होता है। कारण यह है कि राग द्वेष-रहित केवल प्रवृत्ति मात्र से जो संस्कार कार्मणशरीर पर अंकित होता है, वह अगले ही क्षण नष्ट हो जाता है। जबकि रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति से होने वाला संस्कार बहुत काल तक स्थित रहकर चित्त को प्रवृत्ति करने के लिए प्रेरित करता रहता है। भावबन्ध का कारण : रागात्मक अध्यवसाय है, वस्तु नहीं समयसार में उक्त तथ्य का अभिप्राय भी यही है कि केवल वस्तुओं के संयोग-वियोग से या प्रवृत्ति करने, न करने से बन्ध नहीं होता, वह होता हैअध्यवसान से, अर्थात्-राग-द्वेषात्मक कषायों से। भावात्मक होने के कारण इन्हें भावबन्ध कहा जाता है।३ भावबन्ध का कारण साम्परायिक बन्ध है, ईर्यापथिक नहीं यही कारण है कि शास्त्रों में भावबन्ध के सन्दर्भ में बन्ध के दो भेद किये हैंसाम्परायिक और ईर्यापथिका तत्त्वार्थसूत्र में इनका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है-वह (योग) कषायसहित और कषायरहित होता है। तथा क्रमशः कषायसहित साम्परायिक कर्म का और कषाय-रहित ईर्यापथिक कर्म का बन्धहेतु (आम्रव) होता है। सकषाय का अर्थ है, जो कर्म कषाय से युक्त हो, अर्थात-जिसमें क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषाय और हास्यादि नौ नोकषाय का उदय हो, वह सकषाय है। -पंचाध्यायी (उत्तरार्द्ध) ४४ १. न केवल प्रदेशानां बन्धः सम्बन्ध मात्रतः । सोऽपिभावैरशुद्धैः स्यात्सापेक्षस्तद्वद् बयोः ॥ २. कर्मरहस्य (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी), पृ. १३१ ३. ण य वत्थुदो बंधो, बंधो अज्झवसाण जोएण । -समयसार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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