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________________ १६६ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) द्रव्यकर्म के बंधादि पर से जीव के भावों का अनुमान जिस प्रकार थर्मामीटर का पारा देखकर व्यक्ति के ज्वर की तरतमता का ज्ञान स्वतः हो जाता है, उसी प्रकार द्रव्यकर्म के बन्ध, उदय आदि पर से जीव के भावों का अनुमान स्वतः हो जाता है। इसलिए कर्मसिद्धान्त जीव के भावों को नापने के लिए थर्मामीटर के समान है। चूंकि द्रव्यकर्म एवं जीव के भाव, इन दोनों का साथ-साथ कथन करना बहुत जटिल हो जाता है, इसलिए कर्मसिद्धान्त की शैली में द्रव्यकर्म के बन्ध आदि पर से ही जीव के भावों का अनुमान कर लेना उचित है। अतः जहाँ भी कर्म की प्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि का प्रसंग आए, वहाँ द्रव्य कर्मबन्ध की अपेक्षा से समझना, भाव कर्मबन्ध की अपेक्षा से नहीं। उसी पर से भाव कर्मबन्ध का अनुमान स्वयं लगा लेना चाहिए। ' दोनों प्रकार के बन्धों में भावबन्ध ही प्रधान, क्यों और कैसे? वैसे देखा जाए तो, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध में भावबन्ध ही प्रधान है, क्योंकि इसके बिना कर्मों का जीव के साथ बन्ध नहीं हो सकता । समयसार में कहा गया हैये ( अज्ञान, मिथ्यादर्शन और अचारित्र) तथा ऐसे और भी अध्यवसाय जिनके नहीं होते, वे मुनि अशुभ या शुभ कर्म से लिप्त नहीं होते। रागादि अध्यवसाय के अभाव में बन्ध नहीं, अध्यवसाय निषेध क्यों ? वास्तव में, अध्यवसाय ही बन्ध का कारण है, बाह्य वस्तु नहीं। फिर बाह्य वस्तु के आश्रय का निषेध क्यों किया जाता है ? इसका समाधान यह है कि बाह्य वस्तु अध्यवसाय का आश्रयभूत होती है। क्योंकि बाह्य वस्तु का आश्रय लिये बिना, अध्यवसाय अपने स्वरूप को प्राप्त नहीं होता, अर्थात् उत्पन्न नहीं होता। इस दृष्टि से अध्यवसाय के निषेध के लिए बाह्य वस्तु का निषेध किया जाता है | २ जीव और कर्म के सम्बन्ध मात्र से द्रव्यबन्ध नहीं, भाव अपेक्षित सारांश यह है कि जीव और कर्म प्रदेशों के सम्बन्ध मात्र से- या एक क्षेत्रावगाह होने मात्र से द्रव्यबन्ध नहीं हो जाता, अपितु जब आत्मा में रागद्वेषादि या कषायादि विकारीभाव (विभाव) आते हैं, अर्थात् - पहले भावबन्ध होता है; फिर किन्हीं वस्तुओं (सजीव-निर्जीव पदार्थों) के आश्रय से द्रव्यबन्ध होता है। और द्रव्यबन्ध के निमित्त से १. जैन सिद्धान्त प्र. ८१/८२ २. (क) एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि । ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिंपति ॥ - समयसार मू. २७० (ख) अध्यवसायमेव बंध हेतुर्नतु बाह्यवस्तु । तर्हि किमर्थो बाह्य वस्तु-प्रतिषेधः । अध्यवसाय-प्रतिषेधार्थः । अध्यवसानस्य हि बाह्यवस्तु आश्रयभूतः नहि बाह्यवस्त्वनाश्रित्य अध्यवसानमात्मत्वं लभते । - समयसार (आ.) २६५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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