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________________ १६८ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) और जो कर्म कषाय से रहित हो, अर्थात्-जिसमें क्रोधादि कषाय और हास्यादि नोकषाय न हों, वह अकषाय है। कषाय के अभाव में कर्मपरमाणु आत्मा के साथ सम्बद्ध नहीं रह सकते। स्वार्थजन्य फलांकाक्षा भी रागद्वेष के समान भावबन्ध का प्रबल हेतु ___ पहले राग और द्वेष के प्रकरण में क्रोधादि कषायों तथा हास्यादि नौ नोकषायों को हमने आकर्षण और विकर्षण शक्ति से युक्त राग और द्वेष दो में गर्भित करके उनका अध्यवसाय (भाव) के रूप में विश्लेषण किया था। लोकालोकव्यापी सर्वगतज्ञान (आत्मा का अनन्त ज्ञान) जब अपने समग्रग्राही स्वरूप को छोड़कर किसी एक ही पदार्थ में अभिनिविष्ट हो जाता है, तब वह संकीर्ण होकर अहं से अहंकार बन जाता है। इस अवस्था में वह अपने भीतर इष्ट-अनिष्ट रूप विविध द्वन्द्वों का सृजन करता है, जो आगे चलकर राग-द्वेष का रूप धारण कर लेते हैं। इन राग और द्वेष को भी संक्षिप्त करके हम एक शब्द-'स्वार्थ' में समाविष्ट कर सकते हैं। समग्र विश्व को आत्मौपम्य भाव से, वीतराग भाव से, ज्ञाताद्रष्टापूर्वक जानने-देखने वाला विशाल हृदय जब एक को छोड़कर दूसरे के प्रति, और दूसरे को छोड़कर तीसरे के प्रति धावमान होता है तब वह संकीर्ण तुच्छ स्वार्थ कहलाता है। तुच्छ स्वार्थी निःस्वार्थ, निष्प्रयोजन कोई भी कार्य नहीं करता। कार्य करने से पहले वह सोचता है-इस कार्य को करने से मेरे तुच्छ स्वार्थ की सिद्धि होगी या नहीं? अगर उस कार्य को करने से उसको मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है, तो वह उस कार्य को करेंगा, अन्यथा नहीं। इस प्रकार फलाकांक्षा रखकर प्रत्येक अभीष्ट एवं तुच्छ स्वार्थजन्य कार्य को करना ही उसका स्वरूप है। वस्तुतः स्वार्थजन्य फलाकांक्षा ही समस्त कषायों और रागद्वेष की जननी है। अतः स्वार्थजन्य फलाकांक्षा को भी हम राग-द्वेष के बदले बन्ध । का हेतु कह सकते हैं। इसे ही भावबन्ध का प्रबल और परिष्कृत लक्षण कहना उपयुक्त होगा।' साम्परायिक सकषाय और ईर्यापथिक अकषायवत् सकाम-निष्काम कर्म जिनेन्द्र वर्णीजी ने फलाकांक्षायुक्त स्वार्थकृत कर्म को संसार वृद्धि का हेतु होने से साम्परायिक, सकषाय अथवा सकाम कर्म, और उसका हेतु न होने से अकषाय, ईर्यापथिक या निष्काम कर्म कहा है। इस प्रकार के अन्यदर्शन-प्ररूपित सकाम और निष्काम कर्म का विस्तृत वर्णन हम कर्मविज्ञान के तृतीय खण्ड के 'सकाम कर्म और निष्काम कर्म : एक विश्लेषण' शीर्षक निबन्ध में कर आये हैं। १. (क) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, (प. सुखलालजी), पृ. १५१ (ख) कर्मरहस्य (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी), पृ. १३२-१३३ २. (क) वही (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी), पृ. १३३ (ख) देखें, कर्मविज्ञान, तृतीय खण्ड में “सकाम कर्म और निष्काम कर्म : एक विश्लेषण"। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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