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________________ १५२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) जैसे - अर्जुन मालाकार ने कषायादिवश होकर मानवहिंसारूप पापकर्मों का गाढ़बन्ध किया, किन्तु मुनि बनने के पश्चात् उन्होंने आक्रोश आदि परीषहों को समभाव से सहन किया, सभी जीवों पर क्षमाभाव धारण किया, संवरभाव में रहकर नवीन कर्मबन्ध रोका, प्राचीन कर्मबन्ध की आलोचनादिपूर्वक निर्जरा की । इस प्रकार छह महीनों में क्रमशः गाढ़बन्धन से बद्ध उन कर्मों का सर्वथा क्षय कर डाला, सिद्ध-बुद्ध - मुक्त हो गए । प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने अशुभ परिणामों की तीव्रता से सातवीं नरक में जाने के कर्म बांध लिये थे, लेकिन कुछ ही देर बाद उन्होंने अपने दुष्ट अध्यवसायों से स्वयं को पीछे खींचा, प्रबल शुभ अध्यवसाय किया, जिससे सर्वार्थसिद्ध देवलोकगमन का शुभकर्मबन्धन गाढ़रूप से बाँधा। बाद में उनके अध्यवसायों में शुद्धि उत्तरोत्तर चालू रही, वे उत्तरोत्तर आगे बढ़ते हुए क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुए, मोहनीय आदि चारों घातिकर्मों का क्षय किया और उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। इस प्रकार सुदृढ़ रूप से बँधे हुए पापकर्म को, शुभ अध्यवसायादि से सुदृढ़ रूप से पुण्यकर्मबन्ध के रूप में भी जीव परिणत कर सकता है, और तीव्र अध्यवसायादि से कदाचित् चारों घातिकर्मों अथवा आठों कर्मों का उदय में आने पर सर्वथा क्षय भी कर सकता है। नित्तरूप से शुभ - अशुभ - कर्मबन्ध : एक विश्लेषण निधत्तरूप से बंधे हुए शुभ - अशुभ कर्मबन्ध के विषय में जैनकर्मविज्ञान ने गहरा प्रकाश डाला है। पहले बताया गया था कि निधत्तबन्ध उन सुइयों के गट्ठर की तरह है, जिनके ढेर को लोहे के तार से कस कर बाँधा गया हो, फिर उन पर जंग लग गया हो। ऐसी सुइयाँ कब अलग होती हैं ? जब उन पर मिट्टी का तेल लगाकर उनको खूब घिसा जाता है, और तब लोहे के तार को खोला जाता है। इस प्रकार की श्रमसाध्य और समयसाध्य प्रक्रिया से सुइयाँ अलग- अलग और साफ हो जाती हैं। निधत्त कर्मबन्ध भी ऐसा ही सुदृढ़ तथा श्रम एवं समय-साध्य है। निधत्त रूप से बंधे हुए अशुभ कर्मों को तोड़ने के लिए दीर्घकाल तक कठोर तपश्चर्या करनी पड़ती है, तीव्र पश्चात्ताप तथा आलोचना - निन्दना - गर्हणा करनी पड़ती है, उच्च प्रकार की भावनाओं तथा शुद्ध अध्यवसायों से आत्मा को भावित करना पड़ता है।' तभी निधत्त रूप से बंधे हुए अशुभकर्मों से छुटकारा मिल सकता है। अन्यथा, निधत्तरूप से बाँधे हुए अशुभ कर्म के उदय में आने पर सैकड़ों-हजारों वर्षों तक दुःख भोगना पड़ता है। निधत्तरूप से बद्धकर्म जीव को रुलाते हैं, दुःख देते हैं, पीड़ित करते हैं, संतप्त करते हैं। अपना मनचाहा कुछ भी नहीं होने देते। एक घंटे पहले जहाँ खुशियाँ छा रही थीं, वहीं अचानक खेदजनक या चिन्ता जनक समाचार मिलते हैं, तब सारे ही पासे उलटे पड़ने लगते हैं। निधत्तरूप से बांधे हुए पापकर्म के उदय में आने पर सभी काम उलटे ही उलटे होते हैं। 9. कर्म फिलोसोफी (गुजराती) (विजयलक्ष्मणसूरी जी) पृ. ३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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