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________________ कर्मबन्ध की मुख्य चार दशाएँ १५३ इसी प्रकार तीव्ररुचि और शुभ अध्यवसायपूर्वक धर्मक्रिया की जाती है तो उससे निधत्तरूप से पुण्यबन्ध होता है। उसके उदयकाल में जीव को मनुष्य-जन्म, आर्यदेश, उत्तमकुल, परिपूर्ण पाँचों इन्द्रियाँ, निरोग-स्वस्थ शरीर, इष्ट-वस्तु का संयोग और धर्म-प्राप्ति के साधन आदि मिलते हैं। ऐसे निधत्तबद्ध पुण्य के उदय से आनन्द का असीम झरना फूट पड़ता है।' यह हुआ निधत्तरूप से बद्ध शुभ-अशुभ कर्म का कार्य और सुफल ! निकाचित रूप से बँधे हुए शुभाशुभ कर्मबन्ध का कार्य अब रहा निकाचित रूप से बंधे हुए शुभ-अशुभ कर्म का कार्य और फल। पहले बताया जा चुका है कि जैसे-सुइयों के गट्ठर को आग में तपा-तपाकर लोहपिण्ड बना लेने पर उन सुइयों का अलग-अलग होना असम्भव है, यही बात निकाचित रूप से बद्ध कर्म के विषय में समझिए। निकाचित रूप से बद्ध कर्म का फल जीव को भोगना ही पड़ता है। उसे भोगने पर ही छुटकारा होता है, बिना भोगे वे कदापि नहीं छूटते। प्रश्न होता है-ऐसा अतिसुदृढ़ कर्मबन्ध कैसे हो जाता है ? इसका समाधान यह है कि जैसे-किसी व्यक्ति को किसी जीव को मारने की बुद्धि उत्पन्न हुई। मारने से पहले तीव्र इच्छा हुई, कि इसे मारूँ तभी मेरी शान है। फिर मारने के समय में अत्यन्त खुशी हो तथा तीव्रभाव से उछल-उछल कर उस व्यक्ति को मारे और जान से मार डालने के बाद उस हिंसा के पापकार्य को वीरता का कार्य माने तथा अपनी तथाकथित बहादुरी का खूब गुणगान करे। ऐसी पापक्रिया करते समय आत्मा में कषायों की मात्रा बहुत प्रबल होती है, राग-द्वेष भी तीव्र होता है, रौद्र-परिणाम भी उत्कट हों तो उस हिंसाजन्य अशुभ कर्म का निकाचित रूप से बंध हो तो उसका कटु फल समय आने पर भोगना ही पड़ता है। निकाचित बंध हो जाने के पश्चात् चाहे जितनी धर्मक्रिया करो, देव-गुरु-धर्म की सेवा करो, तीव्र तप आदि करो, परन्तु इस प्रकार से बद्ध कर्म के उदय-काल में उसका फल तो मिलने ही वाला है। जैसे-कई रोग ऐसे असाध्य होते हैं कि इलाज कराने पर भी मिटते नहीं हैं, कई व्यक्तियों को धन प्राप्त करने के लिए अथक पुरुषार्थ करने पर भी नहीं मिलता, कई व्यक्ति दुःख मिटाने के लिए तनतोड़ प्रयत्न करते हैं, फिर भी नहीं मिटता, ऐसी स्थिति में समझना चाहिए कि निकाचित रूप से बांधे हुए कर्म का उदय है।२ निकाचित रूप से बंधे हुए पुण्यकर्म की पहचान इसी प्रकार अत्यन्त शुभ अध्यवसायों से तीव्र रसपूर्वक की हुई धर्मक्रिया रे पुण्य-कर्म भी निकाचित रूप से बंधता है। उसका फल भी उदय आने पर भोगन पड़ता है। पाप की तरह व्यक्तिगत पुण्यानुबंधी पुण्य की स्थिति भी सादि-सान्त है .. १. कर्मफिलोसोफी से भावांशग्रहण, पृ. ३१ २. वही, पृ. ३२-३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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