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________________ कर्मबन्ध की मुख्य चार दशाएँ १५१ बद्धरूप से हुए पाप और पुण्य का बन्ध अब जरा बद्धरूप से होने वाले पापबन्ध तथा पुण्यबन्ध पर विचार कर लें। पहले बताया गया था कि जैसे- सुइयों के ढेर को एक डोरे से कस कर बाँध दिया जाता है तो उन सुइयों के बँधे हुए गट्ठर को खोलने और सुइयों को अलग-अलग करने में जरा देर लगेगी; वैसे ही अच्छी (धर्म) क्रिया या बुरी (पाप) क्रिया स्पृष्टरूप कर्मबन्ध कराने वाली क्रिया की अपेक्षा जिस धर्मक्रिया अथवा पापक्रिया में रुचि, प्रशस्त राग, अनुराग आदि घुले-मिले हैं, ऐसा कर्मबन्ध बद्ध कहलाता है। बद्ध कर्मबन्ध में पापकर्म या पुण्यकर्म करने में गाढ़ रुचि होती है, इसलिए स्पृष्ट की अपेक्षा यह कर्मबन्ध मजबूत होता है। इस कर्म को तोड़ने के लिए खास प्रायश्चित्तादि करना पड़ता है। जैसे - डोरे से बँधे हुए सुइयों के बन्धन को ढीला करने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है, वैसे ही बद्धरूप से बँधे हुए कर्मों को तोड़ने या ढीला करने के लिए भी खास प्रयत्न करना पड़ता है। ऐसे प्रयत्न से टूटने वाला कर्मबन्ध बद्ध कहलाता है।' स्पृष्टरूप से बँधा हुआ बन्ध बद्ध, निधत्त और निकाचित भी हो सकता है यहाँ एक बात ध्यान में रखना जरूरी है कि पहले स्पृष्टरूप से कर्मबन्ध हुआ हो, परन्तु बाद में रुचि, वृत्ति और रागद्वेषादि में उत्तरोत्तर वृद्धि हो जाए तो पीछे से वह बन्ध बद्ध, निधत्त या निकाचित रूप भी हो सकता है। इसका कारण यह है कि उस क्रिया के करने के पश्चात् उसकी अत्यन्त प्रशंसा की हो या अत्यन्त हर्षावेश में आकर नाच उठा हो तो ऐसा होता है। जैसे-एक व्यक्ति ने पहले कोई पाप क्रिया नीरस भाव से की है, परन्तु बाद में उस क्रिया का स्मरण करके वह अत्यन्त हर्षाविष्ट हो गया हो, वह अपने द्वारा कृत पाप की प्रशंसा करने लग गया हो, ऐसी स्थिति में पहले स्पृष्टरूप से बँधा हुआ कर्म बद्धरूप में बँध जाता है। इसी प्रकार पहले बद्धरूप से पाप-कर्म बाँधे हों, परन्तु बाद में उन पापकर्मों के बारे में बार-बार अत्यन्त हर्षाविष्ट हो जाए, अपनी बहादुरी बताए, अपने मुँह से अपने आपको शाबाशी दे तो वह बद्धरूप से बाँधा हुआ पापकर्म निधत्तरूप से बँध जाता है। इसी प्रकार निधत्तरूप से बाँधे हुए पापकर्म की बाद में बार-बार प्रशंसा अत्यन्त हर्षावेश में उन्मत्त हो जाए, अपनी बड़ाई जगह-जगह हांकता फिरे; बार-बार उस पाप कर्म की अनुमोदना करे तो वह शिथिलरूप से बाँधा हुआ पापकर्म सुदृढ़ निकाचित बंधरूप हो जाता है। इसी प्रकार पहले सुदृढ़ बंधरूप में बाँधे हुए पापकर्म की पीछे से तीव्रभाव से पश्चात्तापपूर्वक आलोचना, निन्दना और गर्हणा करे, जनता द्वारा किये जाते हुए आक्रोश, निन्दा, ताड़ना, तर्जना आदि परीषहों को समभाव से सहे, क्षमादि दशविध धर्माचरण करे, संवरभाव में तत्पर रहे तो वह गाढ़ बंध वाला पापकर्म शिथिल बन्ध वाला हो जाता है। कदाचित् शुद्ध अध्यवसाय होने से उसका क्षय भी हो जाता है । २ १. वही, पृ. २९-३० । २. वही, यत्किंचिद्ग्रहण पृ. ३० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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