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________________ १५० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) में विघ्नकारक नहीं होता। उससे आत्मा भी सुखी और शान्त रहती है। कषाय, परिग्रह, अभिमान, आदि भी मन्दतर हो जाते हैं। ऐसा पुण्य. धर्मविघातक नहीं होता। वह उत्तरोत्तर अधिकाधिक कर्मक्षय करके, उत्तम पुण्यानुबन्धी पुण्य के फलस्वरूप उच्च देवलोकों तथा उनके सुखों को प्राप्त करता है। साथ ही वह पुण्य मुक्ति के कारणों में सहायरूप होता है। आशय यह है कि मुक्ति प्राप्त न हो, वहाँ तक उक्त पुण्यानुबन्धी पुण्य जीव को सद्गति प्राप्त कराता है और मुक्ति के कारणों में पुरुषार्थ करने का ऐसा संयोग उपस्थित कर देता है, जिससे शीघ्र मुक्ति प्राप्त हो सके। निष्कर्ष यह है कि चौदहवाँ अयोगी केवली गुणस्थान प्राप्त होने से पहले तक कोई भी आत्मा क्रिया किये बिना रह नहीं सकता। चौदहवाँ गुणस्थान प्राप्त न हो, वहाँ तक शुभ या अशुभ क्रिया तो रहेगी ही। और यह बात भी निश्चित है कि तथाप्रकार की सूत्रानुरूप धर्मक्रिया किये बिना चौदहवाँ गुणस्थान प्राप्त हो ही नहीं सकता। भगवतीसूत्र में कहा गया है कि “सूत्रानुसार गमनादि क्रिया या धर्मचर्या करने वाले साधक को ईर्यापथिकी क्रिया लगती है। इसके विपरीत सूत्रविरुद्ध क्रिया करने वाले व्यक्ति को साम्परायिक क्रिया लगती है।"२ इस दृष्टि से सूत्रानुसार धर्मक्रिया परम्परा से केवलज्ञान की, चौदहवें गुणस्थान की और मुक्ति की भी कारण है ही। अतः आत्मार्थी और मुमुक्षु साधक को आत्मा को शुद्ध, निष्कलंक और कर्ममुक्त करने के लिए सूत्रानुरूप धर्मक्रिया करनी ही चाहिए।३ स्पृष्टरूप से बांधे जाने वाले पुण्य तथा पाप का बन्ध ___कर्मबन्ध की दृष्टि से देखा जाय तो जो व्यक्ति धर्मक्रिया करता है, परन्तु नीरसभाव से, बिना मन के केवल काया से जैसे-तैसे करता है, तो उसे स्पृष्टरूप से पुण्यबन्ध होता है। इसी प्रकार कोई व्यक्ति हिंसा, असत्य, चोरी, परिग्रह, अब्रह्मचर्य आदि पापक्रिया करता है, परन्तु करता है, बाध्य होकर, लाचारी से, दबाव से, पश्चात्तापपूर्वक आत्मनिन्दा करते हुए; तो उसके भी पापकर्म का बन्ध बहुत ही अल्प, स्पृष्टरूप होता है। पापक्रिया पश्चात्तापपूर्वक करने के बावजूद भी वह अगर गुरुदेव के पास आकर उसकी आलोचना, निन्दना, गर्हणा आदि करता है, प्रायश्चित्त ग्रहण करता है, आत्मभावों से स्वयं को भावित करता है तो उसके पाप धुल जाते हैं। यह हुआ स्पृष्टरूप से हुए पुण्यबन्ध तथा पापबन्ध का स्वरूपा। १. कर्म फिलोसोफी (गुजराती) (विजयलक्ष्मणसूरीजी) पृ. २७, २८ २. देखें, भगवतीसूत्र श. ७, उ. १, सू. १६/१ में उक्त-"अहासुत्तं रियं रियमाणस्स इरियावहिया किरिया कज्जति उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जति", सूत्र में अहासुत्त और उस्सुत्त की व्याख्या -खण्ड २, पृ. ११९ ३. कर्म फिलोसोफी (गुजराती) (विजयलक्ष्मणसूरीजी), पृ. २८ ४. वही, पृ. २९ से भावांशग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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