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________________ कर्मबन्ध के मुख्य कारण : एक अनुचिन्तन १३३ आन्तरिक निमित्तों के मिलने पर (आत्मा में) आत्मप्रदेशों में जो स्पन्दन, उद्वेलन, हलचल या चंचलता होती है उसे शास्त्रीय परिभाषा में 'योग' कहते हैं। यह स्पन्दन संचित कर्म की विभिन्नता के कारण तीन प्रकार का होता है- काययोग, वचनयोग और मनोयोग । कायवर्गणा के कर्मपुद्गलों द्वारा निष्पन्न आत्मा की स्पन्दनजन्य जो शारीरिक प्रवृत्ति होती है, उसे काययोग कहते हैं। वचन वर्गणा (भाषावर्गणा) के कर्मपरमाणुओं के प्रभाव से आत्मा की स्पन्दनजन्य जो वाचिक प्रवृत्ति होती है, उसे वचनयोग तथा मनोवर्गणा के कर्मपुद्गलों के प्रभाव से आत्मा की स्पन्दनजन्य जो मानसिक प्रवृत्ति होती है, उसे मनोयोग कहते हैं। संक्षेप में शरीर के विविध व्यापार काययोग हैं, वचन या वाणी के विविध व्यापार वचनयोग हैं और मन के विविध व्यापार मनोयोग हैं। मनुष्य के पास प्रवृत्ति के ये तीन साधन हैं, ये तीनों योग कहलाते हैं। ' पूर्ववर्ती हो तो पश्चात्वर्ती बन्धहेतु अवश्य रहता है इन मिथ्यात्वादि पाँच बन्धहेतुओं में मिथ्यात्व होता है, तो उसके पश्चात्वर्ती अविरति, प्रमाद, कषाय और योग अवश्य ही रहते हैं। अविरति हो तो उसके आगे के प्रमाद, कषाय और योग रहते हैं। प्रमाद हो तो कषाय और योग तथा कषाय हो तो योग अवश्य रहता है। परवर्ती हेतु के समय पूर्ववर्ती हेतु रह भी सकता है, नहीं भी रह सकता है। इस प्रकार बन्धहेतुओं का क्रम बहुत ही विचारणीय है। मुमुक्षुजनों को कर्मबन्ध के कारणों से बचने का प्रयत्न करना चाहिए । २ १. (क) जैनधर्म और दर्शन से पृ. १09 (ख) आत्मतत्व विचार, पृ. २८७ २. जैन धर्म और दर्शन, पृ. १०२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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