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________________ १३२ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) जिंस कषाय के प्रभाव से जीव को अनन्तकाल तक भव-भ्रमण करना पड़ता है, उसे अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं। जिस कषाय के उदय से देशविरतिरूप प्रत्याख्यान प्राप्त नहीं होता, उसे अप्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं। जिस कषाय के उदय से सर्वविरतिरूप प्रत्याख्यान प्राप्त नहीं होता, उसे प्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं। जिस कषाय के उत्पन्न होने पर जीव अल्प समय के लिए मात्र अभिभूत होता है, उसे संज्वलन कषाय कहते हैं। इन चार कषायों में प्रत्येक के तीव्रता-मन्दता के आधार पर चार-चार विभाग होने से कुल सोलह विभाग होते हैं। तीव्र-मन्द कषाय का उदय ही सम्यक्त्वादि में बाधक मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद, ये कषाय के उदय से ही निष्पन्न होते हैं। तीव्रतम कषाय का उदय हो तो सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता, तीव्रतर कषाय का उदय हो तो देशविरति भी प्राप्त नहीं होती, इसी प्रकार तीव्र कषाय का उदय हो, तब तक सर्व-विरति प्राप्त नहीं होती। तथा मन्द कषाय के उदयकाल में वीतरागता उपलब्ध नहीं होती। नौ नो-कषाय : कषायों के उत्तेजक ____ इन सोलह कषायों का विशेष विश्लेषण मोहनीय कर्म के निरूपण के दौरान किया जाएगा। कषायों को उत्तेजित करने वाले नौ नोकषाय कहलाते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-(१) हास्य, (२) रति, (३) अरति, (४) शोक, (५) भय, (६) जुगुप्सा, (७) स्त्रीवेद, (८) पुरुषवेद और (९) नपुंसक-वेद (त्रिविधकाम)। ___यों सोलह कषाय और नौ नोकषाय मिलकर २५ बन्धहेतु कषाय के अन्तर्गत आते हैं। कषाय बन्धहेतुओं में महत्वपूर्ण भाग अदा करता है। यह समभाव की मर्यादा को तोड़ डालता है। कर्मबन्ध का पंचम कारण : योग और उसका कार्य __इसके पश्चात् कर्मबन्ध का पाँचवाँ कारण है-योग। मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद इन तीनों आम्रवों-बन्धहेतुओं के समाप्त हो जाने पर कषाय-आसव से कर्म-परमाणुओं का आगमन और बन्ध होता रहता है। कषाय के समाप्त हो जाने पर केवल योग से पुण्यकर्म का आनव होता रहता है, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध नहीं होता। योग का अर्थ है-प्रवृत्ति, क्रिया, चंचलता या सक्रियता। चूल्हे पर देगची रखी हो, उसमें पानी गर्म होने लगे, तब जैसे उसके प्रदेशों में स्पन्दन, उद्वेलन, और चंचलता तथा हलचल होती है, उसी प्रकार पूर्वसंचित कर्मविपाक के कारण बाह्य और १. (क) जैनयोग से भावाशग्रहण पृ. ३३ (ख) जैनधर्म और दर्शन से पृ. १०१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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