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कर्मबन्ध के मुख्य कारण : एक अनुचिन्तन १३१
एवं नौ नोकषाय; (४) परनिन्दा, निद्रा या आलस्य, एवं (५) विकथा ( स्त्री-भोजनराज-देश-सम्बन्धि विकथा- विचारहीन चर्चा-वार्ता) । ' अर्थात् - विकथा नामक प्रमाद से वासना, भोजन, गंदी राजनीति आदि की चर्चा में जो रस एवं आकर्षण होता है, वह आध्यात्मिक विकास की चर्चा में नहीं होता ।
कषाय : कर्मबन्ध का चतुर्थ कारण : स्वरूप
कर्मबन्ध का चौथा कारण है- कषाय । कषाय का निर्वचन किया गया है-कष यानी संसार की, आय-आमदनी - लाभ जिससे हो, वह 'कषाय' है। अथवा जो आत्मा को मोह के शिकंजे में कषे - कसे, जकड़े या दुःख दे, वह 'कषाय' है। वस्तुतः कषाय आत्मा के शुद्ध स्वरूप को कलुषित करने वाला है। कषाय का फलितार्थ है-राग-द्वेष, अथवा समभाव का अभाव। राग माया और लोभ की प्रवृत्ति को तथा द्वेष क्रोध और मान की प्रवृत्ति को पैदा करता है।
चारों कषायों का कार्य और तीव्रता - मन्दता
राग-द्वेष से समुत्पन्न होने के कारण क्रोध, मान, माया और लोभ को भी कषाय कहा जाता है। ये चारों कषाय चित्त को काषायिक - कलुषित या राग-द्वेषरंजित बना देते हैं। ये चारों कषाय आत्मिक गुणों के अवरोधक, कर्म-ग्रहण में अग्रभाग लेने वाले, अहित आचरण ( प्रवृत्ति) के हेतुभूत एवं हिताचरण के अवरोधक हैं। इसलिए इन्हें शास्त्र में भयंकर अध्यात्मदोष कहा गया है। तथा ये चारों कषाय पूर्णरूप से संसार में पुनः पुनः जन्म-मरण के मूल का सिंचन करने वाले हैं । २
चारों कषायों के प्रत्येक के चार-चार भेद और स्वरूप
इन चारों कषायों के तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र और मन्द की अपेक्षा से प्रत्येक के चार-चार भेद किये गए हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं
१ - अनन्तानुबन्धी- क्रोध, मान, माया और लोभ २-अप्रत्याख्यानीय-क्रोध, मान, माया और लोभ ३ - प्रत्याख्यानीय-क्रोध, मान, माया और लोभ ४ - संज्वलन - क्रोध, मान, माया और लोभ
१. (क) जैनधर्म और दर्शन (गणेश ललवानी) से, पृ. १00 (ख) जैनयोग से, पृ. ३२-३३
२. (क) आत्मतत्व विचार से, पृ. २८६
(ख) जैनयोग से भावांशग्रहण, पृ. ३३
(ग) कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभ चउत्थं अज्झत्थदोसा ।
(घ) चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचति मूलाई पुणम्भवस्स ।
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