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________________ १३० कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) से निवृत्त होने पर जीवात्मा की हृदय की स्थिति बदलती है। सद्गुरु के योग, शास्त्रस्वाध्याय या धर्मश्रवण, एवं वीतरागदेव के प्रति श्रद्धा के कारण वह सत्य-असत्य, दोनों तत्वों के अन्तर को भलीभाँति समझता है। उसके अन्तर्नेत्र खुल जाते हैं। उसके हृदय में पहले जो असत्य के प्रति कट्टर पक्षपात था, उसका जोर नहीं रहकर उसके हृदय में सत्य के प्रति कट्टर पक्षपात जन्म लेता है। यह एक प्रकार से उसका हृदय परिवर्तन है। हृदय परिवर्तन का असर उसके जीवन पर पड़ता है। असत्य के आचरण से धीरे-धीरे हटता जाता है। फिर भी कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हृदय परिवर्तन होने पर भी जीवन परिवर्तन न हो सके। सम्यग्दृष्टि देवों का, तथा श्रेणिक नृप, श्रीकृष्ण आदि क्षायिक सम्यक्त्वी मानवों का हृदय परिवर्तन तो हुआ या होता है, किन्तु चारित्रमोहनीय के उदय के कारण जीवन परिवर्तन (जीवन में व्रतादि धर्माचरण) नहीं होता। जीवन - परिवर्तन न होने के पीछे कई पूर्व संस्कार, पूर्व अशुभ कर्म-बन्ध, कई संयोग, कुटेव आदि भी कारण बनते हैं। सत्य के प्रति प्रेम एवं श्रद्धा जागने पर भी सत्य के जीवन में आचरण में बाधक बनता है - अविरति नामक बन्ध हेतु । ' प्रमाद : कर्मबन्ध का तृतीय कारण मिथ्यात्व और अविरति से जीव कदाचित् बाह्यरूप से निवृत्त हो जाय, फिर भी प्रमाद के कारण वह कई बार गलती कर बैठता है, यथार्थ आचरण करना भूल जाता है । इसलिए प्रमाद को कर्मबन्ध का तृतीय कारण बताया गया है। प्रमाद का अर्थ हैआत्म-विस्मरण। प्रमाद के कारण मानव आत्मा के स्वभाव - आत्मगुणों को भूलकर परभाव या विभाव में चला जाता है। प्रमादावस्था में मानव-मन इन्द्रिय-विषयों के प्रति आकर्षित होकर, व्रतबद्ध होते हुए भी परभावों के प्रवाह में बह जाता है। उपशान्त बने हुए क्रोध, मान, माया, लोभ आदि पुनः पुनः निमित्त मिलने पर अजागृतिवश उभर आते हैं। जागृति लुप्त हो जाती है। कर्त्तव्य - अकर्तव्य का बोध धुँधला पड़ जाता है। फलतः प्रमादवश वह करणीय अकरणीय का भान भूल जाता है। प्रमाद का एक फलितार्थ है - आत्मा के लिए हितकर कुशलकार्य के प्रति अनुत्साह या आदर का अभाव। प्रमाद दशा में अहिंसा आदि धर्मों या श्रुत चारित्र धर्मों अथवा क्षमा आदि धर्मों के पालन के प्रति मन में उत्साह नहीं रहता, सत्य के आचरण में शिथिलता आ जाती है। इसमें अहंकार, वासना, लापरवाही, विषयलिप्सा, निन्दा - निद्रा एवं विकथा भी निमित्त बन जाते हैं। इसीलिए आगमों में पाँच प्रकार का प्रमाद बताया है - ( 9 ) मद ( जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपपद, लाभमद, ज्ञान (श्रुत) मद, तपमद और ऐश्वर्यमद, या अहंकार अथवा अभिमान), (२) विषय अर्थात् शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श इन पाँच प्रकार के इन्द्रिय-विषयों में आसक्ति, (३) कषाय-क्रोधादि चार कषाय १. जैनदर्शन मां कर्मवाद (चन्द्रशेखर विजयजी गणिवर) से, पृ. ३० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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