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________________ = बन्ध के संक्षेप-दृष्टि से दो कारण : = योग और कषाय : - कर्मबन्ध के पांच कारणों का दो में समावेश पिछले निबन्ध में हमने कर्मबन्ध के चार और पांच कारणों का विश्लेषण किया। था। जैन कर्म-वैज्ञानिकों में बन्ध के हेतुओं के विषय में मुख्यतः तीन परम्पराएँ प्रतीत होती हैं। एक परम्परा के अनुसार मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, ये चार बन्ध-हेतु माने गए हैं। दूसरी परम्परा में उक्त चार हेतुओं में प्रमाद को बढ़ा कर पांच बन्ध-हेतुओं का निर्देश है। और तीसरी परम्परा में कषाय और योग, ये दो ही बन्ध के कारण माने गए हैं। संख्या और उसके कारण नामों में अन्तर दिखाई देने पर भी तात्त्विक दृष्टि से कोई अन्तर इन परम्पराओं में नहीं है। प्रमाद एक प्रकार का असंयम ही है, अतः उसका समावेश अविरति या कषाय में हो जाता है। इसी दृष्टि से समयसार, गोम्मटसार, कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों में कर्मबन्ध के चार कारण ही. प्रतिपादित किये गए हैं, जबकि तत्त्वार्थसूत्र, स्थानांगसूत्र, कर्मग्रन्थ आदि में पांच । कारणों का निर्देश है। जहाँ दो कारण मानने की परम्परा है, वहाँ मिथ्यात्व और अविरवि, इन दोनों को, तथा प्रमाद को भी कषाय के अन्तर्गत मान लिया मया है। वास्तव में ये दोनों कषाय के स्वरूप से भिन्न नहीं पड़ते। इसलिए कषाय और योग ये. दो ही संक्षेप दृष्टि से कर्मबन्ध के कारण कहे गए हैं। बन्ध के चार अंगों के निर्माण में ये दो ही आधार कर्मग्रन्थ आदि में बन्ध के चार अंगों का निरूपण किया गया है-(१) प्रकृतिबन्ध, (२) प्रदेशबन्ध, (३) स्थितिबन्ध और (४) अनुभागबन्ध। इन चारों अंगों के मिलने पर ही बन्ध की परिपूर्णता, सुदृढ़ता और स्थायिता होती है। अतः प्रकृतिबन्ध आदि चारों प्रकार के बन्धांगों के लिए योग और कषाय, इन दो का सद्भाव ही अनिवार्य १. देखें-तत्त्वार्थसूत्र (प. सुखलालजी कृत विवेचन) नया संस्करण, पृ. १९२ १३४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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