SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मबन्ध के मुख्य कारण : एक अनुचिन्तन १२५ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । किन्तु इस प्रकार से संख्या में अन्तर होते हुए भी तात्त्विक दृष्टि से इन परम्पराओं में कोई भिन्नता नहीं है। प्रमाद एक प्रकार से असंयम ही है। अतः उसका समावेश कषाय अथवा अविरति में हो जाता है । इस अपेक्षा से कर्मप्रकृति (कम्मपयडी) आदि ग्रन्थों में सिर्फ मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, ये चार बन्ध-हेतु कहे गए हैं। इन कारणों पर भी और सूक्ष्मता से विचार करें तो मिथ्यात्व और अविरति, ये दोनों कषाय के वास्तविक स्वरूप से पृथक नहीं प्रतीत होते। इसीलिए कषाय और योग, इन दोनों को मुख्य रूप से बन्ध के हेतु माना गया। योग और कषाय इन दोनों को किस अपेक्षा से संक्षेप में कर्मबन्ध के हेतु कहा गया, इस सम्बन्ध में हमने 'कर्म बन्ध के संक्षेप में दृष्टि से दो कारण : योग और कषाय' निबन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है। जो कर्मबन्ध के सर्वांगीण रूप के विषय में मर्मज्ञ हैं, वे दो कारणों की परम्परा से सर्वांगसहित बन्ध का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। वस्तुतः कषाय और योग, इन दो हेतुओं के कथन की परम्परा किसी एक ही कर्म में सम्भावित प्रकृति आदि चारों बन्धांगों के कारण का पृथक्करण करने के लिए है, जबकि चार और पाँच बन्ध हेतुओं की परम्परा में कोई भिन्नता नहीं है, किन्तु इस परम्परा के पीछे एक उद्देश्य तो यह है कि जिज्ञासुजनों को बन्ध-हेतुओं का विस्तृत रूप से ज्ञान हो जाय, दूसरा उद्देश्य है - पृथक्-पृथक् गुणस्थानों में तरतमभाव को प्राप्त होने वाले कर्मबन्ध के कारणों का स्पष्टीकरण करना । ' कर्मबन्ध के पाँच कारणों के निर्देश के पीछे स्पष्ट आशय कर्मबन्ध के मिथ्यात्वादि पाँच कारणों के निर्देश के पीछे कर्म-विज्ञान-मर्मज्ञों का स्पष्ट आशय है- 'आध्यात्मिक विकास के उतार-चढ़ाव को प्रदर्शित करने की भूमिकारूप गुणस्थानों में बँधने वाली कर्म-प्रकृतियों के तरतमभाव के कारण को प्रदर्शित करना। जिस गुणस्थान में जितने अधिक बन्ध हेतु होंगे, उस गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों का बन्ध भी अधिक होगा। यह क्रम ऊपर के गुणस्थान से सबसे नीचे के गुणस्थान तक समझना चाहिए। जैसे- जिस गुणस्थान में केवल 'योग' होगा, उसमें कषाय, प्रमाद, अव्रत (अविरति ) और मिथ्यात्वजनित बन्ध नहीं होंगे। अतः केवल योग से स्थितिबन्ध एवं अनुभागबन्ध नहीं होगा। जिसके कषाय (अतिमंद) और योग, ये दो होंगे; उन गुणस्थानवर्ती जीवों में मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद से जनित बन्ध नहीं होगा । तथैव सर्वविरति और देशविरति नामक गुणस्थानों में मिथ्यात्वजनित बन्ध नहीं होगा, किन्तु प्रमादजनित एवं कषाय-योगजनित बन्ध होगा । सम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थानवर्ती जीवों में मिध्यात्व नहीं होगा, किन्तु अविरति आदि ४ कारण होंगे और मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती जीवों में तो बन्ध के पाँचों ही हेतु होंगे । २ १. (क) कर्मग्रन्थ प्रथम ( मरुधर केसरी) से भावशिग्रहण, पृ. ८ । (ख) तत्त्वार्थ सूत्र विवेचन (पं सुखलाल जी ) पृ. १९३ । २. तत्त्वार्थ विवेचन (पं सुखलालजी), पृ. १९३-१९४ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy