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________________ १२४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) अवस्थिति होती है, उसे बन्ध कहते हैं। यही आम्नव और बन्ध इन दोनों में अन्तर है।" यही कारण है कि बन्धरूप कार्य के अव्यवहित पूर्वक्षण में स्थित आसव कारण होता है। अर्थात्-आसव को बन्ध का कारण माना गया है। दूसरी बात यह है कि “आसव में योग की प्रमुखता है और बन्ध में कषायादि की। जैसे-राजसभा में अनुग्रह करने योग्य और निग्रह करने योग्य पुरुषों को प्रवेश कराने में राज्यकर्मचारी मुख्य होता है, किन्तु प्रवेश होने के पश्चात् उन व्यक्तियों को सत्कृत करना या दण्डित करना, इसमें राजाज्ञा मुख्य होती है। इसी प्रकार योग की प्रमुखता से कर्मों के आगमन (आस्रव) का द्वार खोल दिया जाता है; किन्तु उन समागत कमों का आत्मा के साथ एकक्षेत्रावगाह होकर संश्लिष्ट होना, न होना या न्यूनाधिकरूप से बद्ध करना कषायादि की प्रमुखता से होता है।" . गोम्मटसार, समयसार तथा अन्य ग्रन्थों में प्रमाद के सिवाय मिथ्यात्व आदि (कर्मबन्ध के) चार कारण बताये गए हैं, वहाँ भी इसी प्रकार आम्रव और बन्ध का अन्तर समझ लेना चाहिए। अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड में भी इस प्रश्न का सुन्दर समाधान करते हुए कहा गया है-“जिस प्रकार अग्नि में दाहकत्व और पाचकत्वं दोनों प्रकार की शक्तियाँ पाई जाती हैं, उसी प्रकार आस्रव और बन्ध में हेतुरूप, जो मिथ्यात्यादि चारों कारण बताये गए हैं, उनमें भी दोनों प्रकार (आस्रवत्व और बन्धत्व) की शक्तियां पाई जाती हैं जो मिथ्यात्व आदि प्रथम समय में आस्रव के (कों के आगमन के) कारण होते हैं, उन्हीं से द्वितीय क्षण में बन्ध होता है। इसलिए पूर्वोक्त कथन में अपेक्षाभेद है, किन्तु देशना-भेद नहीं है।"१ कर्मबन्ध के हेतुओं की तीन परम्पराएँ और उनमें परस्पर सामंजस्य ___कर्मबन्ध के पूर्वोक्त हेतुओं के सम्बन्ध में तीन परम्पराएँ कर्मवैज्ञानिकों ने प्रस्तुत की हैं-(१) योग और कषाय, (२) मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, और (३) १. (क) प्रथमक्षणे कर्मस्कन्धानामागमनमानवः, आगमनानन्तरं द्वितीयक्षणादौ जीव- प्रदेशेष्ववस्थान बन्ध इति भेदः । -अनगार धर्मामृत पृ. ११२ (ख) जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन पृ. ३५६ (ग) आसवे योगो मुख्यो, बन्धे च कषायादिः । यथा राजसभायामनुग्राह्य-निग्राह्ययोः प्रदेशने • राजादिष्टपुरुषो मुख्यः, तयोनुग्रह-निग्रह-करणे राजादेशः। -अनगार धर्मामृत पृ. १२ (घ) एकस्यापीह वढेर्दहन - पचन - भावात्म - शक्तिद्वया । बह्निः स्याद्दाहकश्च स्व-गुण-बलात् पाचकश्चेति सिद्धेः ।। मिथ्यात्वाधात्मभावाः प्रथमसमय एवासवे हेतवः स्युः । पश्चात्तत् कर्मबन्ध प्रतिसम-समये ती भवेतां कथञ्चित् ॥ नव्यानां कर्मणामागमनमिति तदात्वे हि नाम्नाऽनवः स्यात् । आयत्या स्यात् स बन्धः स्थितमिति लय-पर्यन्तमेषोऽनयोभित् ॥ -अध्यात्मकमलमार्तण्ड परिच्छेद ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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